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चुभन – १ (छ: भागों में विभक्त कहानी )

मेरी आवाज़
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उम्र लगभग पैंतीस , सुशिक्षित , नौकरी पेशा , दो बच्चों की मां , आदर्श पत्नी ,निम्न मध्यम वर्गीय , पारिवारिक , संस्कारों से सुसज्जित , हर कदम फ़ूंक-फ़ूंक कर रखने वाली , रात के काले स्याह तम में एकटक दीवार पर टंगी पुरानी तस्वीर को घूरती और सुबह होते ही जुट जाती एक ऐसे कार्य में , जो करने के बारे में कभी उसने सपने में भी न सोचा था । न तो जिसके बारे में उसे कोई समझ थी और न ही वह उसे समझना चाहती थी । लेकिन विधि की विडम्बना कि जिस कार्य से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता न था उसी को पूरे तन मन से अंजाम दे रही थी । इस बात से अंजान कि जो वह कर रही है , उसमें वह कभी सफ़ल हो भी पाएगी या नहीं लेकिन कहते हैं कि जब इरादे नेक हों और लगन सच्ची तो रास्ते आसान हो ही जाते हैं । नलिनी का मार्ग इतना आसान न था । वह जिस मार्ग पर तन्हा निकल पडी थी वह टेढा-मेढा , कांटों भरा और और हर कदम पर औरों के तानों के चुभने वाले शूल थे । जानती थी कि वह जिस पथ पर चल रही है उसकी कोई मंजिल दूर-दूर तक कहीं नज़र ही नहीं आती , फ़िर भी मन में संतोष था कि अगर वह दो-चार कदम भी नाप पाई तो एक नई राह तो दिखा ही देगी । बस चाह थी दूसरों के जीवन में नई रोशनी भरने की । दूसरों के जीवन में चन्द खुशियां भरने के लिए न जाने उसने कितनी बार अपने-आप को मारा और जब भी अपना बलिदान देती तो दुगुनी ताकत से फ़िर लडने को तैयार हो जाती । हर बार स्वयं मिट कर जो उसे संतुष्टि मिलती वही उसके जीने का आधार बन चुका था ।

नलिनी हमेशा चिंतन मग्न रहती । उसके दिमाग में हर समय कुछ न कुछ चलता ही रहता । वह एक कंस्ट्र्क्श्न कम्पनी में कार्यरत थी । स्वभाव से मिलनसार , हंसमुख नलिनी कभी किसी से ज्यादा बातचीत न करती । आजकल घर में उसने एक प्ले-होम खोल रखा है । आधा दिन तक प्ले-होम चलाती है फ़िर निकल पडती है अपने उद्देश्य को अंजाम देने । कभी चौपाल पर जाकर भाषण करती है , कभी महिलाओं को इक्कठा कर किसी नेता की सी नेतागिरी झाडती है तो कभी बच्चों को लेकर पैदल मार्च करते हुए निकल पडती है जागरूकता मुहिम पर । उसकी बात को कोई तमाशबीन चटखारे लेकर सुनते , कई अनसुना कर मुंह फ़ेर निकल जाते तो कई उसके मुंह पर ही बुरा-भला कह धिक्कारते ।किन्तु नलिनी इन सब बातों से बेप्रवाह बस बोलती रहती । अब तो नलिनी को देखते ही लोग भागने लगते , या फ़िर आंख बचा कर ऐसे भागते मानो उन्हें खाने के लिए कोई विशालकाय दैत्य उनके पीछे पडा हो । ऐसा नहीं कि नलिनी इन सब बातों से अंजान थी , सब जानती थी लेकिन फ़िर भी अपनी बात बताने की उस पर इतनी धुन स्वार थी कि और कुछ सुनना समझना उसके लिए बेमानी था ।

आज सुबह ही जब मेरी काम वाली बाई नें आकर मुझे बताया कि बाहर गली में कोई स्वयं सेविका आई है और आने-जाने वालों को रोक कर अपना भाषण झाड रही है तो मन में उत्सुक्ता जगी देखने की । बाहर निकल कर देखा तो सफ़ेद सूती साडी में लिपटी आकर्षक महिला को देखते ही उस तरफ़ खिंची चली गई । वह बोल रही थी और कुछ मनचले लडके बडे ध्यान से शरारती हंसी हंसते हुए सुन रहे थे ,वह बस बोलते जा रही थी । पास जाकर आवाज सुनी तो आवाज कुछ जानी पहचानी सी लगी । जब पास आकर चेहरा देखा तो अपनी आंखों पर भरोसा ही न हुआ । यह वही नलिनी थी या मेरा भ्रम । इतने सालों बाद और इस तरह नलिनी को देखकर मेरी क्या प्रतिक्रिया थी ,मुझे कैसा महसूस हुआ , मै खुद नहीं जानती लेकिन उसका बदला हुआ रूप देखकर मुझे झटका सा अवश्य लगा ।

मै नलिनी को वर्षों से जानती हूं । या यूं कहुं कि जन्म से जानती हूं तो गलत न होगा । हम दोनों बचपन की दोस्त हैं । साथ-साथ खेलना , कूदना , पढना और उम्र के एक पडाव में आकर दोनों के रास्ते अलग हो गए । नलिनी बहुत चुलबुली , दुबली-पतली और बचपन से ही आत्म-विश्वास भरपूर थी । जिस काम को करने की ठान लेती , वह कर के ही छोड्ती । चाहे कोई काम हो खेल या पढाई , नलिनी ने कभी हार मानना तो सीखा ही न था । मै हमेशा से उसकी हिम्मत और आत्म-विश्वास की प्रशंसक थी और अपने-आप में कभी-कभी आत्म-ग्लानि भी महसूस करती । इधर-उधर चहकती नलिनी जींस और टी-शर्ट में ऐसे चलती कि लडके भी उसकी तरफ़ आंख उठाकर देखने की हिम्मत न कर पाते । दोस्तों की दोस्त आजाद ख्याल नलिनी का व्यकित्व ऐसा कि कोई भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह पाता ।मै नलिनी को अपने दिलो-दिमाग से कभी भुला नहीं पाई लेकिन अपनी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे हम इतने व्यस्त भूल ही गए कि जिन्दगी हमें कहां से किस मोड पर ले आई है । कितना कुछ पीछे छोड आए हैं हम ।

नलिनी भी भला मुझे कैसे भूल सकती थी ? लेकिन उसने मुझे देखकर वो चंचलता और चपलता नहीं दिखाई जो उसके स्वभाव का हिस्सा थी । मै सोच भी नहीं सकती थी कि नलिनी इतनी सौम्य भी हो सकती है ।

मै उसे अपने घर ले गई । उसकी खातिरदारी में मैने कोई कसर न छोडी लेकिन तब तक उसका बदला हुआ रूप मुझे अंदर से कचोटता रहा , जब तक मैनें उससे पूछ न लिया । जवाब में नलिनी बोलते जा रही थी और मेरी सुनने की शक्ति जवाब दे रही थी । जो सुना वह रॊगटे खडे कर देने वाली दास्तां जिसका हर शब्द आत्मा को भी चीर कर उस गहराई तक प्रहार करता कि बेबस ही भद्दी सामाजिक व्यवस्था को छोडछाड कहीं भाग जाने को मन करता ।

क्रमश:

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