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वादा एक ऐसा बोल -वचन जो निभाया जाए तो दुनिया मुट्ठी में और अगर टूट जाए तो विश्वास की डोर ऐसी तार-तार हो जाए कि बेरहम दुनिया के लिए मन में नफ़रत ही बस जाए ।क्या आज के दौर में कसमों वादों प्यार और वफ़ा की कोई अहमियत है या कभी थी अगर है तो कहां ? अब देखिए न वादे तो हमारे नेता लोग भी हर पांच साल बाद करते हैं और चुनाव के बाद ऐसे गायब होते हैं जैसे गधे के सर से सींग और जनता हर बार ऐसे अनेकों वादे सुनती है , वादा-खिलाफ़ी की गुहार लगाती है , फ़िर कभी वादों के चक्कर में न पड्ने की सौगंध खाती है , और फ़िर से झूठे वादों के मकडजाल में फ़ंस जाती है । यह सिलसिला तो यूं ही चलता रहता है । अब शायद जनता-जनार्दन को समझ आने लगा है कि वादा करके तोडना नेता जी का पुराना शौंक है और उसे सुन कर भुला देनें में ही भलाई है वरना हर बार टूटे हुए वादे के साथ-साथ वादा-खिलाफ़ी अंदोलन चलाने लगें तो क्या कमाएंगे और क्या खाएंगे । भई घर में बीवी बच्चे भी तो हैं । उनको किए हुए वादों को पूरा करें या वादा खिलाफ़ी आंदोलन चलाएं । वैसे भी आम आदमी के पास इतना समय कहां कि नेताओं के वादों को याद रखें और सबसे बडी बात कि वादा तो जुबान से kiyaa जाता है , कोई लिखती सबूत थोडे ही होता है कि हमारा कानून उसे मान ले । तो भैया ऐसे वादे करने के लिए होते हैं निभाने के लिए नहीं , उनके पीछे न पडने में ही भलाई है ।
वादा जिसने निभाया उसने अपना सब गवाया , आज के युग में तो यही बात कहनी पडेगी । वादा करना ही आसान होता है , जब निभाने की बारी आती है तो ये कसमें , वादे सब बेमानी से लगते हैं ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम नें भी सीता जी से सात फ़ेरे लेते हुए हिन्दु रस्मो-रिवाज़ के हिसाब से जन्म-जन्म तक और हर हाल में साथ निभाने की कस्म खाई होगी और कितनी निभा पाए , यह हमें यहां इतिहास दोहराने की आवश्यक्ता नहीं है । अगर अपनी पत्नी को दिया हुआ वचन निभाते हुए उसका साथ देते तो क्या होता ? एक राज्य ही तो जाता न , कम से कम आदर्श पति और पिता तो कहलाते , लेकिन शायद उन्हें आदर्श पति और पिता से बढकर आदर्श राजा बनना था , सो अपना वादा तोड दिया ।जब उन्होंनें भी सीता जी की पावनता को परखने के लिए अग्नि परीक्षा ले ही ली थी तो फ़िर गर्भावस्था में पत्नी को अकेले वनों में भटकने के लिए छोड देने में उन्हें जरा भी हिचकचाहट क्यों न महसूस हुई ।यहां शायद यह प्रश्न उठाया जाएगा कि हमारा इतिहास गवाही देता है कि सीता जी नहीं , बल्कि सीता जी की परछाई का रावण नें अपहरण किया था , तो मैं भी यही मानती हूं कि जब सीता जी की आत्मा , दिल दिमाग सब अपने पति श्री राम में ही बसता था तो आत्मा के बिना तो शास्त्र भी कहते हैं कि शरीर निरर्थक है , उसका अपहरण हो भी गया तो क्या ?लेकिन यह बात तो वही त्याग की मूर्ति एक स्त्री ही समझ सकती है , पुरुष नहीं । शायद राज्य के मोह में श्रीराम ने अपनी पत्नी का त्याग भी भुला दिया । एक नारी ही है जो शायद अपने प्यार के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर सकती है और प्यार को सही मायने में समझ सकती है । जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम ही अपनी पत्नी को दिया हुआ वचन नहीं निभा पाए तो आम आदमी के कस्में वादे कितने सच्चे होंगे , आसानी से समझा जा सकता है ।
श्री कष्ण जी नें भी राधा जी से न जाने कितने वादे किए होंगे और आवेश में आकर न जानें कितनी ही कस्में खाई होंगी ।लेकिन सब छोड-छाड कर न केवल राज्य सुख भोगा बल्कि शानो-शौकत का जीवन जीते हुए अपने विवाह भी रचाए । क्या एक राजा होकर श्री-क्र्ष्ण के लिए ब्रज जाना मुश्किल था , बिल्कुल भी नहीं ।मेरा यहां अभिप्राय किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है लेकिन ऐसे कुछ प्रश्न हैं जो कभी न कभी बार-बार मन में उठते हैं । तभी कहते हैं न कि इंसान को ज्यादा सोचना ही नहीं चाहिए , जहां भी थोडा सोचना शुरु किया वहीं पर कोई न कोई समाज विरोधी बात मन में घर कर जाएगी और यह बात तब और भी खतरनाक हो जाती है जब आपको लिखने की बीमारी हो । यह लिखने की बीमारी भी कोई मामूली नहीं है बल्कि ऐसा भयानक रोग है जिसे लग जाए , उसका इलाज़ मरते दम तक संभव ही नहीं । जितना इस के वायरस को मारो उतना ही तेजी से फ़ैलता है । इलाज़ से अच्छा परहेज़ है , पर जब तक परहेज़ करो यह वायरस इस तरह अपनी चपेट में ले लेता है कि बचना नामुमकिन हो जाता है ।
क्या लिख रहे हैं , क्यों लिख रहे हैं और किसके लिए लिख रहे हैं , इन सब बातों की फ़िक्र किसे होती है और मजे की बात कि लिखने वाले को पता भी नहीं चलता कि वो लिख क्या रहा है और पढने वाले उसे किस अर्थ में लेंगे । लिखना है लिख दिया और छोड दिया दूसरों के लिए । वैसे इसका फ़ायदा भी है , एक तो मन में कुंठा अपना ठिकाना नहीं बना पाती और दूसरा कि सामने वाले के दिमाग में क्या चल रहा है समझने में देर नहीं लगती । यह तो शुक्र है अंतरजाल का जिसनें अपने जाल में ऐसा फ़ंसाया है कि बाहर निकल नहीं सकते और मिनटों में लिखो और पलों में दूध का दूध और पानी का पानी । न इंतज़ार न कोई संदेह और वादा खिलाफ़ी के मौके बहुत कम होते हैं । देर से ही सही लेकिन लिखने का वादा किसी नें किया तो देर – सवेर निभाने का प्रयास तो हर हालत में करेगा ही । अब देखिए अपने पिछले आलेख क्या करें क्या न करें……. में हम अंतरजाल की आंतरिक समस्या में ऐसे फ़ंसे कि पाठकों की टिप्पणियों के भी जवाब नहीं दे पाए और जब निकले तो वादा किया कि हम अपने जवाब अगली पोस्ट लिखकर देंगे । आज हम हाजिर हैं अपना वादा निभाने के लिए ।
बात वादों की ही चल रही है तो पिछले आलेख में प्रिय पाठकों की राय में सबसे बडी बात जो सामने आई वो यह कि गुरु द्रोण नें अपना वादा निभाने के लिए एकलव्य का दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया था । भई वो ठहरे गुरु और उनका वादा टूट जाता तो क्या जग हंसाई नहीं होती , भले ही किसी की पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाए लेकिन वादा नहीं टूट्ना चाहिए । हमारे सुधी पाठकों नें भी यह राय व्यक्त की । हम यहां किसी बहस को नए सिरे से छेडना नहीं चाहते लेकिन जैसा मैनें ऊपर कहा कि कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं , जो भले ही समाज की सोच के विपरीत हों लेकिन फ़िर भी गाहे-बगाहे मन में जगह बना ही लेते हैं ।हम फ़िर से वही बात दोहराना चाहेंगे कि क्या गुरु द्रोण नें केवल अपना वादा निभाने के लिए अंगूठा मांगा , इसका कोई और कारण नहीं था क्या ? मेरे विचारों से कोई भी असहमत हो सकता है लेकिन क्या एक सत्य यह नहीं हो सकता कि उस समय गुरु के ऊपर राजनीति भी हावी थी , अगर कौरवों-पाण्ड्वों के अलावा कोई और शक्तिशाली बन जाता तो क्या गुरु द्रोण से राज-गुरु होने का हक छीन नहीं लिया जाता ? क्या उसके पास वो राजाओं-महाराजाओं के समान शानो-शौकत रह जाती ? क्या फ़िर उन्हें कोई राज-दरबार में घुसने भी देता ? क्या गुरु द्रोण के मन में स्वार्थ नहीं था , अगर ऐसा नहीं होता तो वह अर्जुन से गुरु-दक्षिणा में राजा द्रुपद का राज्य नहीं मांगता । अगर उसके मन में लालच नहीं होता तो कभी अपने मित्र के किए हुए वादे को भुला साधारण जीवन जीकर गुरु शिरोमणि की उपाधि से सम्मानित होता । क्या एक गुरु होकर , जो एक पिता भी था , जिसने जीवन में अभाव देखा था , एक ऐसे शिष्य के प्रति मन में कोई भाव उत्पन्न न हुआ जो भील जाति का था और अभावों से ग्रस्त था । हम आम इंसान होकर भी किसी को राह चलते मामूली चोट भी लग जाए तो अपनी कोशिश करते हैं किसी तरह से सहायता करने की और गुरु जिसको कोमल भावनाओं का सागर कहा जाता है , उसके मन में उस समय कोई चीस क्यों न उठी जब एक मासूम से शिष्य नें गुरु वाणी को देव वाणी मानकर बिना अपनी परवाह के अंगूठा काटकर दिया । शायद कहीं न कहीं गुरु के मन में यह डर भी था कि एक भील जाति का लडका धनुष विद्या में निपुन्न होकर अपनी जाति वालों को भी यह शिक्षा देगा और आगे चलकर यह राज्य के लिए खतरा साबित हो सकता है । खैर जो भी हो मेरी राय तो यही है कि गुरु द्रोण नें एकलव्य के साथ जो किया वो गलत था । किन्तु मेरा प्रश्न तो अब भी वहीं का वहीं है कि जब हमें ऐसी कहानी से आधुनिक युग के हिसाब से और बच्चों की सोच के हिसाब से कोई नैतिक शिक्षा नहीं मिलती है तो ऐसी कहानियां सुनाना कहां तक उचित है ।
यहां फ़िर से शाय्द यह कहा जाएगा कि एकलव्य जैसा शिष्य बनने की शिक्षा मिलती है तो मैं एक और प्रश्न पूछना चाहुंगी कि कौन से ऐसे माता-पिता हैं जो आज अपने बच्चों में एकल्व्य जैसी अंधी गुरु भक्ति देखना चाहेंगे ?
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