Menu
blogid : 2242 postid : 43

अब पछताए होत क्या ……..?

मेरी आवाज़
मेरी आवाज़
  • 107 Posts
  • 718 Comments

बेटा ज़रा एक गिलास पानी तो देना कहते हुए हांफते-हांफते सुशीला सामान से लदी टोकरी पास ही रख घर के बाहर ड्योढी में ही बैठ गयी |
कितनी बार बोला है , इतनी दूर मत जाया करो और इतना सारा सामान अकेले मत उठाया करो , कितना थक जाती हो तुम , कभी तो अपने लिए भी सोच लिया करो, माँ के हाथ में पानी का गिलास देते हुए अखिला बिना रुके बोले जा रही थी |
वो ज़रा चल भी लेती हूँ , अब इस उम्र में ही अगर न चले तो पूरी जिन्दगी का सफ़र कैसे तय करेंगे |
अब बस भी करो माँ , क्यों इतना सोचती हो ? कहते हुए अखिला की आँखें भर आईं और माँ को ऐसे गले लगाया , मानो किसी बच्चे को दुलार रही हो |
बस तुम्हारी इन्हीं बातों से तो मैं अपनी सारी थकावट भूल जाती हूँ | अब जल्दी से सामान उठा | मैं ज़रा दो घड़ी सास ले लूं तो आती हूँ |
अखिला सामान से भरी टोकरी अन्दर ले गयी और सुशीला वहीं बैठी अखिला को निहारती हुई स्वयम में ही फुसफुसाते हुए – कितनी समझदार हो गयी है मेरी छोटी सी गुडिया | अभी कल ही की बात है जब पूरे घर में इधर से उधर फुदकती थी , खुद रूठना और खुद ही मान जाना | | वक्त कितनी जल्दी करवट बदलता है पता ही नहीं चलता , सोचते सोचते सुशीला ड्योढी की छत एकटक देखने लगी ……..
यह वही ड्योढी है….? जब मैनें पहली बार इसकी चौखट पर कदम रखा था | वो भी क्या समय था ? तब से लेकर आजतक इसके साथ-साथ
जिन्दगी नें कितने रंग दिखा दिए और यह भी मेरी ही तरह हर रंग में भीगती चली गयी , पर उफ तक न की | जब यहाँ आई थी तो अखिला
के पिता जी की चार हजार तनख्वाह थी और उसमें महीने भर का खर्च चला कर भी कुछ न कुछ बचा ही लेते थे | ऐसे ही तो बनाई थी घर
की जरूरी चीजें |
समझदार गृहिणी , ममतामई माँ , आदर्श पत्नी ……एक औरत में जिन गुणों की कल्पना की जाती है , सब गुण थे सुशीला में | ज्यादा पढी
लिखी न थी फिर भी हिसाब-किताब में कभी गडबडी न हुई | पूरा महीने भर का बजट बनाती और राशन-पानी की सारी जिम्मेदारी उसी पर
ही तो थी | किशोर बाबू ( सुशीला के पति ) सरकारी कार्यालय में कलर्क थे | पूरी की पूरी तनख्वाह लाकर सुशीला के हाथ में रख देते और फिर
जरूरत पड़ने पर उससे ही माँगते | चार हज़ार तनख्वाह में घर का खर्च कैसे चलाना है , और कितनी बचत करनी है , यह सुशीला के हाथ में
था | जिस दिन उनका बेटा मानव पैदा हुआ ,संयोग से उसी दिन किशोर बाबू की तनख्वाह भी पूरे पांच सौ रूपए बढ़ गयी थी | दो-दो खुशियाँ
एक साथ पाकर सुशीला के तो पैर ही जमीं पर न पड़ते थे |
मैं न कहती थी …..हर बच्चा अपनी किस्मत साथ लेकर आता है | चलो अब इसके खर्चे का प्रबंध तो भगवान नें अपने आप ही कर दिया |
जिन्दगी खुशी से कटाने लगी और दो साल बाद अखिला गोदी में आ गयी | किशोर बाबू की तनख्वाह भी बढ़ी लेकिन जितनी तनख्वाह बढ़ी खर्चा और मंहगाई उससे दुगुना बढ़ा | सुशीला इस काम में तो माहिर थी ही | अगर कम है तो कम खर्च में घर कैसे चलाना है इसकी तो जैसे सुशीला नें ट्रेनिंग ही ले रखी थी | हर चीज को नाप तोल कर लेना , ज्यादा पढी लिखी न होते हुए भी क्वालिटी , कुआन्टिटी , एक्सपायरी डेट जैसी चीजों का ध्यान अवश्य रखती | कौन सी चीज कहाँ से अच्छी और सस्ती मिलती है , इसकी पूरी समझ सुशीला को आ चुकी थी | यहाँ तक कि सब्जी भी खरीदनी होती तो पास की मार्केट से न लेकर दो किलोमीटर दूर सब्जी मंडी में जाकर देख परख कर लेती और सब्जियों का बोझा उठाए पैदल ही चल पड़ती | कभी कभी बीच में सड़क के किनारे लगे पेड़ की छाया में रुककर सास ले लेती लेकिन रिक्शा के पैसे बचा लेती |
कहा भी था कितनी बार किशोर बाबू नें की यहीं से खरीद लिया करो पर नहीं सुशीला तो ठहरी एक आदर्श गृहिणी , कहाँ सुनाने वाली थी किसी की | आखिर एक बेटी की माँ जो ठहरी | ऐसे खर्चे बचा-बचा कर ही तो उसनें अब तक बेटी के लिए कितना कुछ बना लिया था , जिसकी किशोर बाबू को भनक तक न थी | ऐसे थोड़े ही न कहते हैं कि बेटी की माँ आधी चोर होती है , और इस चोरी के पीछे उसके कितने पवित्र भाव छुपे होते हैं इसको तो वो माँ स्वयम भी ब्यान नहीं कर सकती |
जिन्दगी के बीस साल चुटकियों में ही निकल गए थे | भले ही किशोर बाबू की तनख्वाह चार से पंद्रह हज़ार हो गयी थी , ज़माना बदल गया था
लेकिन हालात बिल्कुल वैसे ही थे | कम से कम सुशीला की जिन्दगी में तो कोई बदलाव न आया था | कुछ बदला था तो बस यही कि उसके बालों में सफेदी कुछ ज्यादा चमकने लगी थी , आँखें गहरा गयी थी , कसे बदन में ढीलापन आ गया था , बातों में चंचलता की जगह गंभीरता नें ले ली थी , पर बचत की आदत में कोई बदलाव न आया था | आ भी नहीं सकता था क्योंकि आमदन के साथ खर्चे और मंहगाई दुगुने वेग से जो बढ़ रहे थे |
बस अब मानव की पढाई पूरी हो जाए और कुछ कमाने लगे तो मैं भी जिन्दगी के बाकी बचे चार दिन आराम से जी पाऊँगी | सोचते-सोचते
सुशीला की आँखों में अजीब सी चमक और होठों पर हल्की सी मुस्कराहट आ गयी , जैसे अभी उसका हसीं सपना सच होने वाला हो |
अरे किसको याद कर अपने आप में ही मुस्कुरा रही हो , कोई लाटरी लगी है क्या ….? किशोर बाबू की आवाज़ से सुशीला एकदम चौंक गयी |
लगी नहीं तो अग जाएगी , बस मानव को जैसे ही नौकरी मिलेगी मैं आराम से रहूंगी |
ठीक है ठीक है अपनी पुरानी साईकिल खड़ी करते हुए किशोर बाबू हंसने लगे | न तो तुम अपनी आदत छोड़ सकती हो और न ही हमसे ये साईकिल छूट सकती है , पुराने साथी हैं हम |
पता नहीं लोग इतनी बड़ी बड़ी गाड़ियां कहाँ से ले लेते हैं और फिर उनके खर्च कैसे झेल लेते हैं ? कशोर बाबू के मजाक में भी निराशा झलकने लगी |
तुम भी स्कूटर ले लेना फिर मैं तुम्हारे साथ ही जाया करूंगी |
अपनी ऐसी किस्मत कहाँ भागवान | इतने बड़े सपने मत देखो |
सपना कहाँ जी , हमनें पूरी उम्र अपना पेट काटकर बच्चों को पढ़ाया है तो क्या हमें इतना भी नसीब न होगा |
माँ खाना तैयार है खालो | अन्दर से अखिला की आवाज़ आई | किशोर बाबू हर रोज दोपहर का खाना घर पर ही खाने आते और अखिला
पिताजी के आने से पहले खाना बना देती | अब बेटी बड़ी हो गयी थी और किशोर बाबू को अखिला के बनाए खाने में जो स्वाद आता , वो सुशीला के खाने में न आता | ये बेटियाँ होती ही ऐसी हैं | जैसा भी बनाएं , उसका स्वाद कुछ और ही होता है | अखिला को भी माँ की मदद करना अच्छा लगता | इसलिए दोपहर का खाना वही बनाती | अखिला की आवाज़ सुन किशोर बाबू और सुशीला हाथ मुंह धो खाना खाने लगे | कितने प्यार से बनाई थी अखिला ने किशोर बाबू की पसंदीदा सब्जी लौकी , अभी अभी तो लाई थी माँ बाज़ार से और कितनी हरी-हरी ताज़ा और सबसे सस्ती भी तो थी |
आज सब्जी में वो स्वाद न था |अखिला जब तक अपने खाने की तारीफ़ पिताजी से न सुन लेती उसे अपनी सारी मेहनत ही बेकार लगती थी | किशोर बाबू नें आज भी तारीफ़ तो की लेकिन बेमन से | अखिला को अच्छा नहीं लग रहा था | अभी उसनें खाना न खाया था कि जान सके कि कमी क्या है , बस इतने में ही सुशीला के पेट में अजीब सा दर्द उठने लगा , कुछ ही मिनटों में किशोर बाबू की भी वही हालत हुई | अखिला को समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है |मानव अभी घर न लौटा था | पड़ोसियों की मदद से दोनों को अस्पताल पहुंचाया गया | अस्पताल पहुंचते ही किशोर बाबू नें दम तोड़ दिया | सुशीला की हालत भी नाजुक बनी हुई थी | मुश्किल से ही उसकी जान बच पाई और जिन्दगी की गाडी अब पटड़ी से उतर चुकी थी |
किशोर बाबू के बिना सुशीला अन्दर से टूट चुकी थी फिर भी बच्चों की खातिर हौंसला बनाए हुए थी |
पिता जी की मृत्यु के पश्चात मानव न जाने अचानक से कितना बड़ा हो गया था | अपनी हर जिम्मेदारी समझाने लगा था | दुनियादारी कुछ
ज्यादा ही सीख गया था और उसके स्वभाव में अजीब सा परिवर्तन भी आया | अपनी जिम्मेदारियों का बोझ उठाते हुए एक छोटी सी कंपनी में
नौकरी भी कर ली | जिन्दगी गाडी धीरे-धीरे रेंगने लगी , सामान्य अभी कुछ न हुआ था | सुशीला अन्दर ही अन्दर घुटती रहती | अखिला पिताजी का गम भुला न पाई पर माँ को देखकर चुप हो जाती | इन दिनों अखिला नें महसूस किया कि मानव भी अब भाई और दोस्त से ज्यादा उसका पहरेदार बन गया है | दिन भर क्या किया , कहाँ गयी , किससे बात की ….स्वाल आजकल कुछ ज्यादा ही पूछने लगा था | उसनें अपने दोस्तों से भी किनारा कर लिया था | उन दोनों का बचपन का दोस्त नीरज भी मानव के इस बदलाव को महसूस कर रहा था | इक्कठे पढ़े , बचपन में इक्कठे खेले खाना पीना और यहाँ तक कि कभी कभी सोना भी एक दूसरे के घर में होता था , जाति की दीवार भी जिनमें कभी बाधा न बनी थी ऐसे दोस्त से भी मानव कन्नी काटने लगा था | शायद उसे भनक लग चुकी थी अखिला और नीरज एक दूसरे केकरीब आने लगे हैं | दोनों का प्यार पनपने से पहले ही मानव उसे ख़त्म कर देना चाहता था | ऐसा नहीं कि वह नीरज को नापसंद करता था लेकिन वह जाति से ब्रह्मण था और क्षत्रिय होकर ब्रह्मण परिवार से रिश्ता जोड़ना मानव को किसी भी हालात में मंजूर न था | दोस्ती तक तो बात ठीक थी लेकिन अपनी ही बहन का किसी दूसरी जात के लडके से प्रेम सम्बन्ध ……नीरज के लिए असहनीय था | पहले यह बात मानव अखिला को इशारों ही इशारों में समझाने की कोशिश करता लेकिन अब अखिला भी जवान हो चुकी थी , उसके भी कुछ आरमान थे , वह भी अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जीना चाहती थी और एक पढी लिखी समझदार लड़की कब तक मूक श्रोता बन कर सुनती , धीरे -धीरे भाई के सामने वह भी अपने जिन्दगी जीने के हक़ की बात बोलने लगी | बूढ़ी माँ सुशीला चाह कर भी कुछ न कर सकती थी | उसे अपनी बेटी पर रहम आता l जिसके लिए उसनें अपने मन में न जाने कितने सपने संजो रखे थे और हर दिन वह चोर बनी थी , न जाने कितने झूठ बोले थे , उसके अरमानों का गला घुटते वह न देख सकती थी | एक दिन सुशीला से रहा न गया और अखिला और नीरज की मंदिर में बेटे से चोरी शादी करवा दी | नीरज और अखिला कहीं और जाकर रहने लगे | मानव को यह बात नागवार गुज़री और अपनी बहन की इस हरकत को वह कभी माफ़ न कर पाया |दिल्ली जैसे शहर में उसे ढूँढता भी तो कहाँ ? सोचा पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए लेकिन घर की इज्जत का स्वाळ था , अगर यह बात लोगों की जुबान पर आ जाती तो क्या बरसों से कमाई इज्जत की धज्जियां नहीं उड़ जाती | इस समय मानव बदले की आग में अन्दर ही अन्दर जलने लगा | उसकी आंखों पर झूठी इज्जत का ऐसा पर्दा पड़ चुका था कि वह अपनी प्यारी बहन के हर सपने को किसी भी हालत में रौंद देना चाहता था | आखिर क्यों विश्वासघात किया अखिला नें | क्या उसे इस घर की इज्जत का ज़रा भी ध्यान न आया और नीरज जिसे उसनें अपना सच्चा दोस्त नहीं बल्कि हमेशा से भाई समझा , उसनें मेरे ही घर की इज्जत के साथ खिलवाड़ किया | बस मानव तो जैसे सब सोच समझ ही खो चुका था | सुशीला मानव को कभी न बता पाई कि अखिला और नीरज नें कोंई भी कदम अपने-आप नहीं उठाया |
अखिला माँ से मिलाने अकसर आती लेकिन जब मानव घर पर न होता तब | एक दिन अखिला जब माँ से मिलकर जा रही थी तो मानव नें दूर से उसे घर से निकलते देख लिया | बस फिर क्या था ? माँ से सारी बात जान ली और माँ बेचारी कब तक छुपाती | मानव को तो बस अखिला का पता चाहिए था | जब तक माँ अखिला को किसी तरह सूचित कर पाती , मानव अखिला और नीरज को सदा की नींद सुला चुका था |हालात की मारी माँ सदमा सह न पाई और वहीं के वही ढेर हो गयी | मानव जेल की सलाखों के पीछे जिन्दगी काट रहा था | अब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ था , लेकिन…………….?

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published.

    CAPTCHA
    Refresh