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बिन पर भाषा ज्ञान के…..

मेरी आवाज़
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निज भाषा उन्नति अहे
सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के
मिटत न हिय को शूल
ये पंक्तियाँ तो आप सबनें पढी होंगी और इसका मतलब भी हम सब जानते हैं कि अपनी भाषा के ज्ञान के बिना तो आप अपने दिल का दर्द भी किसी से नहीं बाँट सकते | जितनी अच्छी तरह से हम अपनी भाषा में बात समझा सकते हैं उस तरह से किसी और भाषा में नहीं | यहाँ मेरा विरोध किसी भी भाषा से नहीं | प्रत्येक भाषा अपने आप में सम्पूर्ण होती है , जिसके माध्यम से हम अपने भावों की अभिव्यक्ति कर सकते हैं भला उससे किसी को भी क्या विरोध हो सकता है | दुनिया में हजारों भाषाएं बोली जाती हैं और एक सामान्य इंसान ज्यादा से ज्यादा कितनी भाषाएँ सीख सकता है …जवाब आप सब जानते हैं |
बात भावों और भाषा की है तो मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि मासूम से बच्चे की बिन बोली भाषा और एक माँ के अदृश्य जज़बात की तुलना दुनिया की किसी भाषा या भाव से हो ही नहीं सकती | ऐसा अनुभव बस एक माँ ही कर सकती है और नन्हे-मुन्ने की भाषा समझना बस उसी के ही बस की बात है | शायद इसीलिए माँ माँ होती है , माँ सा कोई नहीं | कहते हैं भगवान के बाद दूसरा स्थान माँ का होता है , पर मेरे विचार से भगवान् भी माँ की बराबरी नहीं कर सकता | माँ के आँचल में जो शीतलता , उसकी आँखों में जो स्नेह , ह्रदय में ममता का जो भण्डार , बालों में चलती उँगलियों में जो निश्छल प्रेम , निस्वार्थ त्याग …बस एक माँ ही में इतने सारे गुण हो सकते हैं | मेरी नज़र में माँ का स्थान सर्वोच्च है | और अगर माँ ही बच्चे की भाषा न समझे तो सोचिए ज़रा उस बच्चे की हालत क्या होगी ? अगर माँ ही अपने भावों को दबा ले तो क्या समझ पायेंगे बच्चे अपनी माँ की ममता को | शायद इसीलिए भाषा को भी माँ का दर्जा दिया गया है , जो हर भाव हर जज़्बात , हर सोच और हर बात को कहने में सक्षम होती है |
हम आजकल दक्षिण भारत में हैं और तमिल तेलगु , कन्नडा भाषाओं को समझना हमारे बस की बात नहीं लेकिन फिर भी हम भारतीय हैं , किसी न किसी तरह से अपनी बात समझा ही लेते हैं | नहीं भी समझा पाते और कई बार हमें उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है | मुझे एक बात जिसे सोचकर कभी-कभी हँसी भी आती है और सोचने पर मजबूर भी हो जाती हूं कि भाषा जो भावाभिव्यक्ति का एक मात्र साधन है , वह दो अनजान लोगों में बातचीत में बाधा भी बन सकती है और वो भी अपनी भारतीय भाषा | हाँ तो मैं बात बता रही थी कोइ दो साल पहले –एक दिन मैनें खीर बनाई | पंजाबी खीर जिसनें खाई हो वही समझ सकता उसका स्वाद , उस पर लगी मेहनत और मंहगाई के जमाने में उस पर आया खर्च ( कच ज्यादा कह दिया मैंने ) | हम पंजाबियों की भी बहुत सारी आदतें ऐसी हैं जो परम्परा से चली आ रही हैं | हमने अपनी माँ को ऐसे देखा था , हम भी वैसा करते हैं और आगे शायद हमारे बच्चे भी उस परम्परा को निभाने में कोइ कसर न छोड़ेंगे , वो ये कि हमारे घर कोई मेहमान आ जाए तो उसे इतना खिलाओ कि दूसरी बार आने से पहले कम से कम एक दिन भूखे पेट रहे | और दूसरी आदत कि हमारे घर कोई आए और बिना कुछ खाए-पिए चला जाए , यह हमारे लिए अपमान की बात होती है | ऊपर से हम आने वाले की खातिरदारी इतने गुप-चुप तरीके से करते हैं कि आने वालो को पता तब चलता है जब सामने का टेबल प्लेटों से सज जाता है , भले ही किसी का मन हो या न हो | मन न हो ऐसा भी कम ही होता है | हम लोग जितना खिलाने में माहिर होते हैं उतना खाने में भी और पता ही होता है कि हम किसी के घर जा रहे हैं तो भर पेट खाना ही पडेगा , आखिर इतने प्यार से जो आएगा सामने |
मैं बात बता रही थी की मैंने खीर बनाई और ऊपर से हमारी काम वाली बाई भी आ गयी | हम कुछ खा रहे हों और ऊपर से कोइ आ जाए और हम उसे न दें ऐसा कभी नहीं हुआ और शायद कभी हो भी नहीं सकता | मैंने अभी खुद तो चखी भी न थी कटोरी भर उसे जरूर दे दी और बोल भी दिया की पहले खा लो फिर काम कर लेना | अब उसे हिन्दी समझ नहीं आती और मुझे तेलगु | उसने न जाने क्या समझा की भरी की भरी कटोरी डस्टबिन में फैंक दी | हम जब तक कुछ समझ पाते हमारी खीर कचड़े के डिब्बे में जा चुकी थी | बाद में मैंने उसे इशारे से समझाया तो उसकी हंसी से मुझे लगा की मेरी बात वो समझ चुकी है | वो हँस रही थी और मैं मन ही मन रो रही थी | ऐसी कोइ न कोइ घटना आए दिन मेरे साथ होती ही रहती है , फिर भी हम अपनी बात कह ही लेते हैं किसी न किसी तरह , कभी -कभी विदेशी भाषा का सहारा लेकर |
हम भारतीय हैं वो भी पंजाबी कोई अंग्रेज थोड़े ही कि अंगरेजी को आसानी से पचा लें |
किसी भी भाषा का ज्ञानार्जन सराहनीय कदम है , पर अगर किसी को न आए तो क्या उसे कोई अधिकार नहीं बनता अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का | क्या हम अपनी बात अपनी भाषा में कहेंगे तो छोटे हो जाएंगे या फिर हमारी मान-मर्यादा मिट्टी में मिल जाएगी , या फिर हमें सम्मान नहीं मिलेगा | तो हम डंके की चोट पर कहते हैं —ऐसी मान-मर्यादा हमें नहीं चाहिए | हम जैसे स्वयम को सहज समझेंगे , जिस भाषा में समझेंगे , वैसे ही कहेंगे | किसी को बुरा लगे या अच्छा , हम इतना जानते हैं कि अपनी भाषा में भाव व्यक्त करना कोई गुनाह नहीं है |
अब कल ही की बात लीजिए …आपने हमारा ब्लॉग तो देखा ही होगा -गुलाबी रंग -सुन्दर मनमोहक और सौभाग्य का प्रतीक | हमनें तो पहले ही स्पष्ट किया था कि हमें यह विषय पसंद आया , मन किया लिखने को तो लिख दिया | हमने न तो कोई चैलेन्ज स्वीकार किया और न ही किसी को नीचा दिखाने या फिर किसी की भावनाओं को आहत करने के मकसद से लिखा | हमें तो खुराना जी के लेख -रंग दे गुलाबी चोला से पता चला था कि टॉप टेन ब्लोगर्स के लिए प्रतियोगिता है और विषय है – पिंक डी कलर ऑफ़ प्रोस्पैरीटी , बस तभी से दिमाग में गुलाबी रंग नें एक छाप छोड़ दी और हमनें अपनी भावनाओं को व्यक्त कर ही दिया |
उस पर आशु जी की टिप्पणी नें हमें सोचने पर मजबूर कर दिया |

ashu के द्वारा July 20, 2010
आप गलत है सीमा जी. टोपिक जो था वो था pink the color of prosperiry.और इस पर इसी स्टाइल में लिखा जा चूका है मिहिर राज के द्वारा. चेलेंज इंग्लिश टोपिक में था तो वो जबाब भी इंग्लिश में था पर आप लोगो ने भी अच्छा लिखा है पर खुराना जी ने सिर्फ शीर्षक लिखा और लिख कुछ और गए आप ट्रेक पर तो है पर अशुध्हियाँ कुछ ज्यादा है और आपने हिंदी लिखने में इतनी गलती की है. अन्यथा न ले सुधर करे आप ,लोग ही अब जागरण के लेखक है

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सर्व-प्रथम तो हम आशु जी के धन्यवादी हैं कि उन्होंने बिना लेख पढ़े समीक्षा कर डाली | पढ़ा होता तो शायद ऐसी टिप्पणी नहीं आती | अगर हम कभी-कभार छुट-पुट कलम चला लेते हैं तो थोड़ा बहुत तो प्रतिक्रया पढ़कर समझ ही जाते हैं कि किसनें पढ़कर पाठक होने का फ़र्ज़ निभाया और किसने बिना पढ़े कुछ कहने के लिए टिप्पणी की | खैर टिप्पणी किसी टिप्पणीकार की अपनी निजी सम्पति है , वो चाहे पढ़कर करे या बिना पढ़े , हर हाल में परम पूजनीय टिप्पणीकार की टिप्पणी के हर शब्द का हम स्वागत करते हैं | क्यों कि बिना पढ़े भी कुछ भी कहा है फिर भी ब्लॉग पर आने और टिप्पणी लिखने में मेहनत तो की ही है | सो हम सभी टिप्पणीकारों के तहे दिल से आभारी हैं | यहाँ मुझे किसी टिप्पणी पर कोई आप्पत्ति नहीं और न ही कभी हो सकती है , बस एक बात जिसने मुझे लिखने पर मजबूर कर दिया कि क्या वास्तव में पर भाषा के ज्ञान के बिना हमें अपनी बात कहने का कोई हक़ नहीं | अगर कोई प्रतियोगिता रखी गयी है और उसका शीर्षक हिन्दी में न होकर इंग्लिश में है या किसी और भाषा में है तो क्या यह जरूरी है कि उसे केवल उसी भाषा में ही लिखा जाए | मुझे कल ही पता चला कि यह प्रतियोगिता सनी राजन जी द्वारा टॉप टेन ब्लागर्स के लिए रखी गयी थी , लेकिन जहां तक मुझे जानकारी है अधिकतर टॉप टेन ब्लोगर्स हिन्दी में ही लिखते हैं | क्या अपनी भाषा में लिखना कोई गुनाह है ? और अगर हमने उस विषय पर लिख दिया जो हमारे लिए नहीं था तो क्या गलती की हमने , या फिर अपनी भाषा में लिखना गलती है ?
क्या पर भाषा के ज्ञान बिना हम वास्तव में अधूरे हैं ?

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