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वारिस

मेरी आवाज़
मेरी आवाज़
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नहीं मै अब की बार ऐसा पाप नहीं कर सकती……………..////////
धडाम…………………..|
तो क्या तेरा बाप खिलाएगा तुम्हें और कर्मजली को | धडाम…………|
नखरा तो देखो महारानी का | बात तो ऐसे करती है जैसे सात-सात पुत्र जने हों | न जाने कहाँ से कलंकिनी आई है , खानदान को एक चिराग तक तो दे नहीं पाई | अरे नरक में जाएगी तू नरक में | किस पाप की दुहाई देती फिरती हो तुम | वारिस न जाना तो महापाप की भागी बनोगी तुम | अरे कलमुंही कीड़े पड़ेंगे तुम्हें कीड़े……. |
अब बस करो अम्मा……| तुम भी तो किसी की जाई हो और मैं भी ………
धडाम…………………
मेरे से जुबान लड़ाती है , तेरी इतनी हिम्मत | कौन सी महारानी है रे तू ….? कोख तो कर्मजली है ही , जुबान भी निकालाने लगी है तू , तेरा इलाज तो अब करना ही पडेगा ( कहते कहते आनंदमा नें शांतामा को बालों से पकड़ अन्दर घसीट लिया )
आ..हां…हां……जोरदार चीख और फिर सन्नाटा |
कंपा देने वाली खामोशी में थोड़ी देर बाद दरवाजे की आहट और आनंदमा पुराने कपडे की पोटली बगल में दबाए चुपचाप दरवाज़ा खोल खेतों की तरफ चल दी |
अन्दर से अब दर्द भरी आह के साथ-साथ सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं , जिन्हें सुनने वाला कोई न था | कोई सुन भी लेता तो उस पीड़ा को महसूस करने वाला कोई न था | वो पीड़ा जो अभी-अभी शांतामा को मिली थी और यह पीड़ा उसके लिए कोई नई न थी , पहले छ: बार वह इसी का अनुभव कर चुकी थी और हर बार न जाने ऐसा क्या था कि न चाहते हुए भी उसे फिर से उसी पीड़ा से गुजरना ही पड़ता था , मानो यह उसकी जिन्दगी का हिस्सा हो और इसके बिना उसे जीने का कोई अधिकार ही नहीं है | जीने का अधिकार और इस पीड़ा से मुक्ति का एक ही रास्ता था …..जिसे अपनी लाख कोशिश के बाद भी शांतामा न ढूंढ पाई थी |
ऐसा नहीं था कि शांतामा अनजान थी , या कुछ समझती न थी बल्कि वह समझदार थी | ज्यादा पढी-लिखी न थी लेकिन फिर भी समझ में कमी न थी | मध्यम वर्गीय शांतामा सामान्य सी दिखने वाली लड़की माता -पिता की तीसरी संतान | गाँव के ही सरकारी स्कूल में दसवीं तक शिक्षा हासिल की और फिर आगे वही जो अक्सर निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की के साथ होता है | शांतामा तो फिर भी दसवीं तक पढाई कर चुकी थी , दो बड़ी बहनों में से बड़ी तो बचपन का सुख भी न भोग पाई थीं की गृहस्थी के बोझ तले दब जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही माँ बनी और माँ की ममता को महसूस न कर पाई थी कि ईश्वर को प्यारी हो गयी | अब एक बच्चा और वो भी लड़का तो उसको किसके सहारे छोड़ते , आखिर बहनें होती किस लिए हैं | बिना किसी एतराज के मंझली बहन जो अभी खुद को संभालना न जानती थी , बच्चे को संभालने की खातिर बिन माँ बने बचपन में ही एक बच्चे की माँ बन गयी | जो ये तक न जानती थी कि माँ की ममता क्या होती है , वो बचपन में माँ बन चुकी थी | नहीं जानती थी कि बच्चे को संभाले तो कैसे , लेकिन इसकी परवाह किसे थी ? बस उसे तो जिम्मेदारी दे दी गयी और उसे निभानी थी | वो न निभा पाई और हर रोज की कलह से तंग आ आखिर एक दिन जिन्दगी से हार मान जिम्मेदारियों से मुक्त हो गयी |
शांतामा के माता-पिता अपनी दो बेटियों को अज्ञानता के चलते खो चुके थे | शांतामा ही अब उनके जीवन का एकमात्र सहारा थी | उसे किसी भी हाल में नहीं खोना चाहते थे | बस उसे गाँव के स्कूल में पढ़ाया और वहीं उसकी शादी केशव ( गाँव के ही लडके ) से कर दी | केशव चार बहनों का एकलौता भाई | गाँव के ही सरकारी अस्पताल में लैब अटैंडएंट के पद पर कार्यरत था | निम्न मध्यमवर्गीय परिवार | पिता का साया सर से उठ चुका था | चारों बहनों की शादी हो चुकी थी और केशव अपनी माँ के साथ था | शांतामा मन ही मन केशव का साथ पाकर खुश भी थी | एक तो दोनों एक ही गाँव के थे , बचपन से एक दूसरे को जानते थे और उस घर में अक्सर आना जाना भी लगा रहता था | अपने माता-पिता से दूर भी नहीं जाना पडेगा और ससुराल में ज्यादा बोझ भी न था | खुशी-खुशी शांतामा और केशव की शादी हुई | कुछ दिन हंसते खेलते गुजरे और एक महीने बाद ही शांतामा पेट से थी | घर में हर कोई खुश था | बस केशव की माँ इस सबसे चिंतित रहने लगी | उसकी चिंता कभी-कभी चेहरे से साफ़ झलकती लेकिन चुप रहती | अभी चौथा महीना ही पूरा हुआ था कि केशव को माँ नें बच्चे का लिंग टेस्ट करवाने का हुक्म सूना डाला |
छोड़ो न माँ , क्या फर्क पड़ता है ? अभी पहला ही तो बच्चा है , अगली बार देखेंगे |
पर माँ के हुक्म के आगे केशव की एक न चली | शांतामा यह सब सुन कर मन ही मन सहम सी गयी लेकिन पति और सास की आज्ञा के आगे सर झुका ही लिया और हुआ वही …….शांतामा के पेट में लडकी |
लड़की…….? नहीं , हमें ये लडकी नहीं चाहिए…….|
पर माँ क्यों………?
क्यों……. ?
अरे बिरादरी में हमारी नाक नहीं कट जाएगी , पहली संतान , वो भी लड़की , हमें तो पहला लड़का ही चाहिए , हमारे खानदान का वारिस |
लड़की क्या खानदान चलाएगी | कौन होगा बुढापे का सहारा ? अपनी बीवी के ही माता-पिता को देख बुढापे में कौन है उनका ? वो तो हमीं है जो उनके काम आ जाते हैं वर्ना कौन पूछता है किसी को | शांतामा चाहकर भी विरोध न कर पाई | शायद हालात लड़की को इतना कमजोर बना देते हैं या फिर मजबूर बना देते हैं | विरोध करती भी तो किसका | भरी दुनिया में उसके माँ -बाप का और कोई भी तो नहीं था और यही लोग तो थे जो कभी-कभार सुख-दुःख में काम आने वाले थे |
केशव को बुरा तो लगा लेकिन माँ की बातें उसके भीतर इस तरह समा गईं कि शांतामा का वजूद ही भूल गया | बस माँ को तो दुर्गा से चंडी बनते एक पल भी न लगा और चार महीने का गर्भ गिरा कर ही घर वापिस आई |
शांतामा की तो जैसे सारी खुशियाँ ही सिमट गईं | कितने सपने संजोए थे उसने | माँ बनने के अहसास मात्र से उसका रोम-रोम रोमांचित हो उठता था और मन में कितनी कोमल भावनाएं अंगडाइयां लेने लगती थी | केशव भी तो पहली बार बाप बनने जा रहा था | एक नई जिम्मेदारी के अहसास से वह मन ही मन मुस्कुरा देता | न जाने दोनों नें मिलकर कितने सपने संजो लिए थे और वो सभी सपने एक ही झटके में मिट्टी में मिल चुके थे | अब करती भी तो क्या ? मन मसोस कर रह गयी और एक उम्मीद के साथ फिर से जीने को मजबूर थी कि अगली बार उसकी सारी इच्छाएं अवश्य पूरी होंगी | जल्द ही वो दिन भी आया लेकिन उससे भी भयानक दर्द लेकर | दूसरी , तीसरी ,चौथी…….सातवीं बार , हाय री किस्मत हर बार धोखा दे जाती | और शांतामा हर बार निचुडती जाती | उसकी सेहत की किसी को फ़िक्र न थी , बस चाहिए था एक लाल , जिसे पाकर शायद पूरी दुनिया उसकी झोली में समा जाती और नहीं मिला तो जैसे दुनिया में उसनें सब खो दिया हो | चार साल में सातवीं बार गर्भ धारण किया था और अब उठने क्या बोलने तक की हिम्मत भी गँवा चुकी थी शांतामा | शारीरिक क्षमता कम होती जाती और पति और सास के एक लड़के की चाहत में जुल्म बढ़ते जाते | जैसे वो कोई औरत न होकर बच्चे पैदा करने की मशीन हो |
किस्मत थी कि हर बार कोख में कन्या ही पलती और हर बार उस अजन्मी कन्या को अज्ञात स्थान पर दबा दिया जाता | जिसे दुनिया में आकर आँख खोलने का हक़ दिया ही नहीं जाता और शांतामा हर बार अपनी संतान के साथ ही अपनी भावनाए , ममता , अपनी सब इच्छाएं भी अपने अन्दर दफनाती जाती | शादी के चार साल और सातवाँ गर्भ | न जाने ऐसी कौन सी हिम्मत थी शांतामा में कि इस सब के बावजूद भी वह ज़िंदा थी या फिर ज़िंदा रहने को मजबूर थी |
इस बार तो शांतामा नें भी तय कर ही लिया था कि भले ही कुछ भी हो जाए वो एक और अपराध नही करेगी , वो होने वाली संतान को हर हाल में जन्म देगी , चाहे उसे किसी भी मुसीबत का सामना क्यों न करना पड़े | जब इस बार भी पेट में कन्या ही निकली तो शांतामा अस्पताल से किसी तरह बच निकली और सीधा अपने माता-पिता के पास ही गयी | अब वो तब तक उस घर में न जाएगी जब तक बची का जन्म हो नहीं जाता | लेकिन आनंदामा भी अपनी जिद्द पर अड़ी थी , वो भी कब मानने वाली थी पर अब शांतामा जा चुकी थी | आनंदामा भी पीछे-पीछे उसके घर पहुँची…….
“मुझे माफ़ करदे बेटी , तू इसको जनना चाहती है तो जनो , मुझे कोई एतराज़ नहीं , पर यूं अपना घर छोड़ कर तो नहीं आते | मेरे बुढापे का तू ही तो सहारा है , तू ही मुझसे रूठ जाएगी तो भला मैं किसके सहारे जिऊंगी “| शांतामा जानती थी कि आनंदामा हर हाल में अपनी जिद्द पूरी करके ही रहेगी | इसलिए साथ जाने से इनकार कर दिया , पर माँ के समझाने पर एक बार फिर शांतामा को हालात के आगे झुकना पडा और चुपचाप आनंदामा के साथ घर चली आई |
अगले ही दिन आनंदामा नें किसी औरत को घर बुलाया और शांतामा को चुपचाप उसके साथ अन्दर जाने को कहा | शांतामा होनी को भाप चुकी थी पर उसकी एक न चली | आनंदामा जबरदस्ती अन्दर ले गयी और न जाने कैसा प्रहार किया कि अविकसित कन्या पलों में ही दम लेने से पहले ही दम तोड़ गयी | आनंदामा उसे एक मैले कुचैले कपडे में लपेट हर बार की ही भांति अज्ञात स्थान पर दफनाने ले गयी और शांतामा फिर से खून के आंसू पीकर रह गयी | अब उसकी पीड़ा के परवाह किसी को न थी | बस इस कहर को सहने की शांतामा को भी आदत सी हो गयी थी | अब उसके मन में कोई खुशी न रह गयी थी , हँसते खेलते चेहरे नें हंसना तो कब से भुला ही दिया था | कुछ झलकता था तो केवल निराशा का भाव | कहीं से कोई आशा की किरण दिखाई ही न देती थी | पर क्यों एक समझदार औरत इतनी बेबस , इतनी लाचार और इतनी कमजोर थी कि खुद पर जुल्म सहकर विरोध करने का साहस न कर पाई | क्यों उसके विरोध को हर बार दबा दिया जाता | क्यों नहीं वह अपनी दास्ताँ जाकर न्याय के मंदिर में सूना पाई |
शांतामा की जिन्दगी की गाडी एक बार फिर से रेंगने लगी थी | आत्म-विशवास की चीज तो उसमें कब से मर चुकी थी | शारीरिक शक्ति के साथ-साथ बौद्धिक शक्ति भी क्षीण हो चली थी | बस आंसू पीती और चुपचाप अपने काम में लगी रहती , न किसी से बोलती , न हंसती , न कहीं बाहर आती जाती | पत्थर की बेजान मूर्त्त बन कर रह गयी शांतामा और इसी दौरान फिर से पेट में नन्हा जीव उपजा , आखिर ईश्वर नें उनकी सुन ली , अब की बार शांतामा एक लडके की माँ बनने वाली थी | आनंदामा के पैर तो जमीन पर ही न पड़ते थे | शांतामा का खूब ध्यान रखती ,उसे हर तरह से खुश रखने का प्रयास करती , पर शांतामा तो स्व पर से परे न जाने कैसी अनजान दुनिया में पहुँच चुकी थी , जहां उसका कोई अपना न था , किसी खुशी गम का उस पर अब कोई प्रभाव न पड़ता था , बस बेबस जिए जा रही थी , उसे समझाने की , खुश रखने की हर कोशिश बेकार थी | आखिर सातवें महीने में ही दुर्बलता के चलते शांतामा नें एक बालक को जन्म दिया जो शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी कमजोर था | आनंदमा एक बार फिर चंडी बन गयी……..
अरी कलमुही लड़का जना भी तो , खानदान क्या धरती पर भी बोझ , कहते कहते आनंदमा शांतामा को बुरी तरह पीट रही थी | शांतामा खामोश बस एक टक घूर रही थी | किस जन्म का बदला ले रही है तू हमसे बोल ……..
कोई हलचल न हुई तो आनंदमा को अहसास हुआ कि वो अब कभी न बोलेगी | डर कर पीछे हटी तो बेजान सा बच्चे की रोने की आवाज़ नें उसे रुकने पर मजबूर कर दिया और आनंदमा खानदान का वारिस को उठा मंदिर के द्वार भगवान् भरोसे छोड़ चली गयी | केशव अपने किए पर पछता रहा था , चाह कर भी माँ को कभी समझा न पाया था कि लडकी के पैदा होने में औरत जिम्मेदार नहीं होती | वह तो लड़का या लडकी को एक्स क्रोमोसोम ही देती है , पुरुष के एक्स या वाई क्रोमोसोम पर निर्भर करता है कि संतान लड़का होगा या लड़की | अब केशव को अहसास हुआ था कि अगर उसनें माँ को समय रहते ये बात समझा दी होती तो बेटियों की हंसी से उनका घर यूं वीरान न होता | तब क्यों ऐसा लगता था कि मैं यह बात माँ को समझाऊंगा तो मेरी मर्दानगी पर शक किया जाएगा | काश मैंने शांतामा का दर्द समझा होता और जानबूझ कर अनजान न बनता तो भ्रूण ह्त्या जैसा अपराध न करता ……..| वारिस को यूं लावारिस न बनाता……//// किन्तु……….???????

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