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मानस की पीड़ा (16) – दुविधा में श्री राम (भाग 1)

मेरी आवाज़
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श्री राम जय राम जय जय राम
करती कपि सेना सिंह नाद

करने को चढ़ाई लंका पर
आ पहुँचे हैं सागर तट पर

वानर भालू औ जाम्बवान
अंगद नल नील औ हनुमान

सुग्रीव लखन के मध्य राम
नहीं है उनके मन में विश्राम

देखते हुए सिंधु अपार
कैसे उतरें सागर के पार

यही अधिक चिंता का विषय
फिर करने लगे सागर की विनय

हे रत्नाकर तुम बनो सहाय
लंका जाने का करो उपाय

कर जोरि राम बोले सविनय
हे सिंधु, तुम हो सदा अजय

अपना नर धर्म बचाने को
सीता को मुक्त कराने को

लंका जाना मजबूरी है
उसके लिए मार्ग ज़रूरी है

तुमको हम पार करें कैसे?
उस ओर पहुँच जाएँ जैसे

हो उचित अगर मार्ग दे दो
उस के लिए चाहो जो वर ले लो

पर सागर ने नहीं सुनी विनय
और राम का भर आया ह्रदय

आँखों में भर आए अश्रुकण
यह देख के कुपित हुए लक्ष्मण

भैया नहीं विनय कोई माने
ताक़त को ही सब पहिचाने

यह कह उठाया बाण धनुष
डर गये देव मुनि औ मनुष

हो क्रुद्ध लखन बोले ये वचन
गिर गया प्रभु का जो अश्रु कण

मैं भैया के इक आँसू पर
सूखा दूंगा तुमको जलधर

इक बाण से तुम्हें सूखा दूंगा
पल भर में कर स्वाह दूंगा

यह सुन कर सिंधु प्रकट हुए
कर जोरि के करने लगे विनय

क्षमा,क्षमा हो क्षमा नाथ
अब क्षमा करो मेरा अपराध

सृष्टि का नियम है अटल
नहीं मार्ग दे सकता है जल

हाँ एक उपाय बता दूंगा
उस ओर तुम्हें पहुँचा दूंगा

कार्य भी सिद्ध हो जाएगा
सृष्टि का नियम बच जाएगा

नहीं होगा कोई भी उल्लंघन
ख़ुश होंगे देव मुनि औ जन

नल नील यहाँ हैं दो वीर
सकते हैं जल का सीना चीर

पत्थरों से पुल निर्माण करें
विशाल सिंधु को पार करें

मैं देता हूँ दोनों को वचन
नहीं डूबेंगे जल में पाहन

जल में पत्थर तर जाएँगे
फिर आप पार जा पाएँगे

राम नाम अंकित पत्थर
सेतु बन जाएँगे जल पर

सुन कर सिंधु से राम लखन
ख़ुश हो गये दोनों मन ही मन

सिंधु बोला ; अब शिव शंकर
को मना लो तुम हे श्री रघुवर

यहाँ लिंग बना कर शिवजी का
और जाप से उनकी करो पूजा

सिंधु पर सेतु बाँधने के लिए
शिव शंकर की तुम करो विनय

हे राम ;तुम शिव को मनाते रहो
लक्ष्मण तुम सेतु बंधाते रहो

यह अति उत्तम ,बोले रघुवर
यही होगा ,सिंधु को दिया उत्तर

सेना संग लखन गये अविलम्ब
राम ने स्थापित किया शिव लिंग

वानर भालू पत्थर लाते
और राम -राम लिखते जाते

नाम की शक्ति से प्रस्तर
तर गये हैं देखो पानी पर

रखते पत्थर ज्यों नील नल
लगता फट गया सिंधु का जल

करते हुए राम राम जयघोष
नहीं सेना को रहा कोई होश

न जाने कैसी शक्ति आई
जो सिंधु पर भी विजय पाई

श्री राम ने किया अखंड जाप
तो प्रकट हो गये शिवजी आप

बन गया वहाँ शिव भक्ति का घर
बोले माँगो कोई मुझसे वर

रघुवर ने जो देखे शिव शंकर
बोले,तुम हो मेरे ईश्वर

‘रामेश्वर’ उनका हुआ नाम
कर जोरि के बोले फिर श्री राम

युद्ध लड़ना है रखने को धर्म
पर नर संहार नहीं मेरा कर्म

युद्ध से होगा कितना विनाश
कितनों की बिछ जाएगी लाश

कितने घर हो जाएँगे सूने
विधवा बन जाएँगी सुहागिनें

भाइयों को तरसेंगी बहनें
कुरलाएँगे बच्चे नन्हे

होगा कितना ही नर संहार
कितने जीवों का मुझ पे भार

आएगा यह है अटल नियम
कैसे जी पाऊंगा मैं जीवन

पत्नी खातिर करूँ अत्याचार
नहीं, नहीं मेरा ऐसा विचार

विनाश नहीं है मेरा कर्म
नहीं लडूं तो जाता है नर धर्म

हुआ है नारी पर अत्याचार
सह जाऊं नहीं उत्तम विचार

मैं युद्ध विनाश नहीं कर सकता
नहीं अत्याचार भी जर सकता

दुविधा में फँसा है मेरा मन
किरपा करो मुझ पर हे भगवन

बंद हो जाए जिससे अत्याचार
न हो जिससे कोई नर संहार

न रोए बेटे को कोई माँ
न दुखी हो भाई के लिए बहना

न रोएँ कोई बच्चे नन्हे
न विधवा होये सुहागिनें

यह सुन कर के शंकर बोले
तुम सत्य हो सत्य निभाओगे

जानता हूँ तुम सत्य के लिए
मारोगे या मर जाओगे

नर वध निश्चय अनुचित होगा
पीछे हटना क्या उचित होगा?

पापी का जो साथ निभाता है
वह भी पापी कहलाता है

नारायण हो नर वेश में तुम
सीता भी नहीं साधारण जन

वह शक्ति है माता सीता
जिसको केवल तुमने जीता

जिसने तुम्हें सब कुछ सौंप दिया
और जीवन तेरे नाम किया

तुम उसे छोड़ दोगे रघुवर
फिर किया क्यों तुमने उसे वरण

रावण का वध तो ज़रूरी है
नर वध बस इक मजबूरी है

फिर उनका तो अच्छा कर्म होगा
नारायण जब सम्मुख होगा

जिस नाम से कष्ट कट जाते हैं
सब पाप दूर हो जाते हैं

वह स्वयं जो सामने ही होगा
इससे अच्छा क्या कर्म होगा

अब तो श्री राम ने ठान लिया
कहना शिवजी का मान लिया

तैयार हुए लड़ने को युद्ध
कर दिया शिवजी ने मन को शुद्ध

नहीं रही मन में अब कोई दुविधा
युद्ध लड़ने में हो गई सुविधा

अब स्वयं युद्ध को जाएँगे
और पाप को मार मुकाएंगे
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