Menu
blogid : 2242 postid : 171

विरहिणी उर्मिला (अंश – मानस की पीड़ा)

मेरी आवाज़
मेरी आवाज़
  • 107 Posts
  • 718 Comments

सिया सहित श्री राम लखन
रहने लगे थे जाकर वन
पर, उर्मिला लक्ष्मण पत्नी
बेचैन थी महलो मे कितनी
हर तरफ ही दिखता सूनापन
नही लगता कही अपनापन
हर स्वास लखन को पुकारती थी
कैसे वह समय गुजारती थी ?
भारी था उसका हर इक पल
मन निराश दिल मे हलचल
फूलों सी वह नज़ुक सी कली
चल रही थी अब विरहा की गली
वह प्यारी सी कोमल काया
कैसा यह उस पर दिन आया ?
उतरी नही मेहन्दी हाथो की
और नीद खो गई रातो की
कितने ही दिल मे अरमाँ लिए
लक्ष्मण के सन्ग मे फेरे लिए
किस्मत ने क्या उपहार दिए ?
जिए, तो अब वह कैसे जिए ?
वह जो महलो की शह्जादी
फूलो पर चलने की आदी
झञ्कार थी हँसी मे वीणा की
महलो का उत्तम नगीना थी
रत्नो से सदा लदी रह्ती
ज्यो गहनो की गंगा बहती
जिसके कोमल मुख मण्डल पर
मीठी मुस्कान सदा रह्ती
पर अब वह बन गई थी जोगन
विरहा मे बन गई थी रोगन
न स्वयम को अब वह सजाती है
न हार शृँगार लगाती है
बोझ लगे कपडे तन के
कहाँ उसे सुहाते अब गहने
रोती नही पिया को दिया वचन
सोचती रहती बस मन ही मन
परवाह नही है खाने की
सोचती है कभी वन जाने की
कभी याद करे बीती बाते
सुनहरे दिन औ शीतल राते
हर पल उसे याद सताती है
पर नही किसी को बताती है
बस पति का चेहरा ही आँखो मे
रख कर वह समय बिताती है
वह याद करे कभी पहला मिलन
जब उसको देख रहा था लखन
आँखे थी उसकी झुकी हुई
पिया के चरणों पर रुकी हुई
क्या ही था उनका मधुर मिलन
जब हर्षित था दोनो का मन
विधाता ने उन्हे मिलवाया था
सुन्दर सँयोग बनाया था
दोनो मे बना ऐसा बन्धन
ज्यो नाता खुश्बू और चन्दन
था साथ लखन का सुखदाई
पर कैसी आँधी यह आई ?
एक दूजे से हो गए दूर
बन गया विधाता भी क्रूर
क्यो नही खुशी से रह पाई
जिस खुशी से ब्याह कर वह आई
कितनी मन मे चाह होती थी
पिया की खातिर ही सजती थी
पिया खुश होन्गे उसको देखकर
कितना श्रृंगार वह करती थी
पर अब तो मन भी नही मानता
क्या हाल है? कोई भी नही जानता
अन्दर ही घुटती रह्ती है
आँसु ही पीती रहती है
पिया बसते है उसके दिल मे
यह सोच-सोच के डरती है
कही निकल न जाएँ हलचल से
इस डर से आह न भरती है
कभी जाती है घर के उपवन
वह भी तो अब लगता है वन
इक कुटिया वहीं बनाती है
फिर प्यार से उसे सजाती है
पिया रहते है ऐसी ही कुटिया मे
और सोते है घास की खटिया पे
बस वही पे समय गुजारती है
पिया की सूरत को निहारती है
उसे फूल नही लगते सुन्दर
काँटे दिखते उसके अन्दर
काँटो को देखती रहती है
हर पल अह्सास यह करती है
किस तरह से वह चलते होन्गे
काँटे भी तो चुभते होन्गे
तीनो ही कितने नाज़ुक है
कैसे यह दर्द सहते होन्गे?
यह सोच के नही रह पाती है
कभी वह तस्वीर बनाती है
सीता के पैर लगा काँटा
श्री राम ने उसको है थामा
लक्ष्मण वह काँटा निकाल रहा
भाबी का पैर सहला ही रहा
पैरो मे पडे हुए छाले
कोई लाल तो कोई है काले
उस दर्द को कभी वह लिखती है
विरहा की वीणा बजती है
महल नही भाता उसको
बगिया की कुटिया मे रहती है
कहाँ भाते अब पकवान उसे
खाने की थी परवाह किसे
गम खाती औ आँसु पीती है
बस इक मकसद से जीती है
पिया मिलेन्गे उसको कभी न कभी
यह सोच के जिन्दा रहती है
फिर से सुहाग सुख भोगेगी
यह सोच के माँग भी भरती है
पिया की तस्वीर बनाती है
और वन मे उसे दिखाती है

कैसे रहते है वन मे पिया ?
फिर स्वयम उसे अपनाती है
खाती है बस फल औ पत्ते
वो पके है या फिर है कच्चे
इस बात की उसे परवाह नही
इस प्रेम की भी कोई थाह नही
कभी याद करे बचपन अपना
चारो बहनो का था सपना
वे रहे सदा ही साथ-साथ
चाहे दिन या चाहे हो रात
वह सपना भी था क्या कमाल
मिला चारों को एक ही ससुराल
पर कहाँ साथ दीदी सीता ?
जिसके सन्ग था हर पल बीता
जब कभी वाटिका मे जाती
थी फूल सिया को दिखलाती
काँटे न हाथ मे चुभ जाएँ
यह सोच के पीछे हट जाती
चल रही होगी शूलो पे सिया
जिसने जीवन महलो मे जिया
जिसके आगे पीछे दासी
बन गई है आज वह वनवासी
जो पहनती बस रेशमी वस्त्र
पर आज पहनती है वल्कल
कोइ देख के चित्र मे ही जानवर
मन ही मन जो जाती थी डर
वही सघन वन में रहती है
जाने वह कैसे सहती है?
मखमल पर ही जो सोती थी
कदम न धरा पे धरती थी
वह चलती है अब शूलो पर
और सोती है तो तीलो पर
किस्मत का खेल निराला है
कहाँ कोई समझने वाला है
उर्मिला की सोच गहरा ही रही
सुध-बुध अपनी वह खो ही रही
कभी सोचती है मन मे
वह भी चली जाए अब वन मे
जाकर वह पिया से मिल आए
विरह की पीडा बतलाए
देखेगी जी भर के पिया को
समझा पाएगी तभी जिया को
दूजे ही क्षण यह सोचती है
और स्वयम को रोकती है
पिया तो करम मे अब रत है
क्यो मुझमे आया स्वार्थ है
नही करम मे बाधा बन सकती
पिया को विचलित नही कर सकती
केवल अपने स्वार्थ के लिए
पिया पथ पाहन नहीं बन सकती
फिर सोचती है वन मे जाऊँ
पिया को बस देख के आ जाऊँ
दूर से देखूँगी पिया को
समझा लूँगी इस जिया को
जाएँगे पिया जिस भी पथ पर
बैठूँगी मै वही पर छुपकर
उस धूल को मै उठा लूँगी
और माँग मे अपनी सजा लूँगी
माथे पे लगा के चरण रज
दुल्हन की सी मै जाऊँगी सज
कभी सोचती है वहाँ पर जाए
उस पथ के काँटे चुन लाए
जिस पथ से पिया गुजरते है
नँगे ही पाँवो चलते है
उस पथ पे फूल बिछा आए
पिया के दर्शन भी कर आए
जा के दीदी की सेवा करे
उसका भी तो कुछ दुख दूर करे
रहकर वह भी प्रियतम के साथ
सेवा मे बँटाएगी उसका हाथ
नही वह कुछ किसी से बोलेगी
इक कोने मे ही सो लेगी
वह दासी बनकर ही रहेगी
और सबकी सेवा करेगी
पिया के भी चरण दबाएगी
तभी तो वह खुश रह पाएगी
सारे कष्टो को सह लूँगी
पर , साथ पिया के ही रहूँगी
कभी सखी को अपनी बताती है
विरह की पीडा सुनाती है
आँखो मे तो आँसु नही आते
बेसुध हो कर गिर जाती है

स्वयम को समझाती है कभी
उर्मिला नही डोलेगी अभी
पिया के लिए वह रहेगी जिन्दा
नही विरहा बन सकता फन्दा
कभी न कभी तो मिलेगे हम
तब तक तो मै रखूँगी दम
मै पिया की राह निहारुँगी
उसके लिए खुद को सँवारुगी
कभी दिल मे धडकन बढ जाती
यह सोच सोच के घबराती
कैसे बीतेगे चौदह वर्ष ?
क्या होगा कभी जीवन मे हर्ष?
कभी सपने मे ही डर जाती
और भावुकता से भर जाती
पर वह तो कुछ नही कर सकती
न जिन्दा है न ही मर सकती
नही बीते समय बिताने से
यूँ ही हर पल घबराने से
लगता वक्त जैसे थम सा गया
सूर्य का रथ ज्यों रुक सा गया
रात मे चँदा को देखती
और कभी उससे पूछती
तुम मेरे पिया को देख रहे
तो बोलो ! वह क्या सोच रहे?
कभी याद मुझे वे करते है
मेरे लिए आहे भरते है
क्या वह भी तुमको देखते है?
कभी मेरे लिए भी पूछते है?
यह मेरे पिया को बता देना
और अच्छे से समझा देना
जिन्दा है अभी उसकी उर्मिला
मुझे नही है उससे कोई गिला
मै जैसी भी हूँ रह लूँगी
विरहा की पीडा सह लूँगी
पर अपना करम तुम छोडना नही
प्रण लिया जो तुमने वो तोडना नही
मेरी परवाह नही करना
सेवा की राह नही तजना
नही बीच पथ घबरा जाना
नही छोड के उनको आ जाना
श्री राम सिया को तेरा साथ
चाहिए ! बनो उनका दूजा हाथ
कभी मन मे मैल नही लाना
न दिलवाना कोई उलाहना
कभी बोलती उर्मि तारो से
जाओ तुम सब वन मे जाओ
जञ्गल की काली रातो मे
पिया के पथ पर तुम बिछ जाओ
सिया राम तो सो ही रहे होगे
पिया बाहर ही बैठे होगे
वह मेरे लिए सोचते होगे
मन मे बाते करते होगे
जा के तुम उनको समझा दो
और मेरी तरफ से बतला दो
कभी बीत जाएँगे चौदह साल
नही लाएँ मन मे कोई मलाल
हर सुबह देखती सूर्य किरण
मेरी तरफ से छू दो पिया के चरण
कभी पक्षियो से करती बाते
न दिन ही न बीते राते
कहती पक्षियो से! हे पक्षीगण
उड कर जाओ तुम उस वन
जहा पर रहते है पिया लखन
जाओ उन्हे न हो कोई उलझन
मेरा सन्देस बता देना
कोई प्यार का गीत सुना देना
जो सुन कर वह खुश हो जाएँ
कुछ समय तो मन को बह्ललाएँ
कभी आता है उसके मन मे
पिया रहते हुए ही यूँ वन मे
मुझको तो भूल गए होगे
कभी याद नही करते होगे
दूजे ही क्षण यह विचार करे
और स्वयम का ही बहिष्कार करे
ऐसा तो कभी न हो सकता
मुझको नही कभी भुला सकता
वह फर्ज़ के हाथो बँधा है अभी
पर मिलेगे मुझसे कभी न कभी
कभी तो हो जाएगा मिलन
मन मे थी इक आशा की किरन
लिखती है कभी प्रेम पाती
फिर खुद ही उसे जला देती
वह दूत को कभी बुलाती है
उसको सन्देश सुनाती है
फिर स्वयम ही उसे रोक देती
और कभी उसी से पूछ लेती
तुम तो उसे मिलते रहते हो
सारे सन्देश जा कहते हो
बोलो कभी पिया ने की है बात
कैसे कटते है दिन औ रात?
कभी मेरा नाम वो लेते है?
क्या कोई सन्देश वो देते है?
सोचो मे रहती थी गुम – सुम
आँखो मे बसे पिया हरदम
मन मे पिया को ही बसाए हुए
उसी की यादो मे समाए हुए
रही काट समय जैसे तैसे
बस विरहा मे रहती ऐसे
धन्य वह भारत की नारी
जिसने अपनी ही खुशी वारी
कहे कैसे उस नारी की तडप ?
कहने के लिए न कोई शब्द
बस वह विरहा मे जलती रही
इन्त्ज़ार पिया का करती रही

– सीमा सचदेव

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published.

    CAPTCHA
    Refresh