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१.तुलसीदास-वैराग्य की रात – (मानस की पीड़ा )

मेरी आवाज़
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श्री रामचरित मानस एक ऐसा पावन ग्रन्थ है ,
जिसका एक -एक शब्द भावुकता से ओत-प्रोत है
और एक-एक शब्द पर महा-काव्य लिखे जा सकते हैं |
यह भावों का ऐसा अथाह समुद्र है जिसमे कोई एक बार
डुबकी लगाये तो डूबता ही चला जाता है | कविवर
“मैथिलिशरण गुप्त जी ने लिखा था :-

“राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है ,
कोई कवि बन जाये सहज सम्भाव्य है”|

श्री राम-चरित्र के बारे में कुछ कहने के लिए कोई शब्द ही नहीं |
एक अति लघु प्रयास किया है-मानस की पीड़ा को कुछ पन्नों में
समेटने का | इस पीड़ा का कोई अन्त नहीं , जितना इसे महसूस
करो उतनी ही बढ़ता जाता है |”मानस की पीड़ा” बीस भागों
में विभक्त है:-

१.तुलसीदास-वैराग्य की रात
२.श्री राम स्तुति
३.दशरथ की दुविधा
४.राम्-लक्ष्मण सम्वाद
५.उर्मिला- लक्ष्मण सम्वाद
६.वन-गमन
७.भरत- विलाप
८.शत्रुघन- सन्ताप
९.कैकेई का पश्चाताप
१०.कौशल्या की तड़प
११.सुमित्रा का त्याग
१२.विरहिणी उर्मिला
१३.मिथिलेश की पीड़ा
१४.चित्रकूट में
१५.राम वैदेही व्यथा
१६.दुविधा में श्री राम(भाग १)
१७.दुविधा में रावण
१८.दुविधा में श्री राम(भाग २)
१९.हनुमान पत्रिका
२०.जानकी का दर्द

प्रथम भाग “तुलसीदास वैराग्य की रात” में तुलसीदास के जीवन
की उस रात को व्यक्त किया है जब वे पूर्ण रूप से श्री राम के
चरणों में आए और रामचरित मानस ,विनय-पत्रिका, कवितावली,
दोहावली, जानकी मङ्गल, पार्वती मङ्गल……जैसे पावन ग्रन्थ रच डाले |
जब जब श्री राम का नाम आयेगा, तुलसीदास का नाम साथ में आयेगा |
तुलसी को राम से अलग किया ही नहीं जा सकता |
***********************
1.तुलसीदास – वैराग्य की रात

श्री राम जय राम जय जय राम
हर पल है जुबां पर यही नाम

घनघोर है तम तूफां गहरा
ऊपर से हो रही थी वर्षा

बादल गरजे बिजली चमके
पर उसके पैर अब कहाँ रुके

कहाँ कब और कैसे जायेगा
वह किसी को नहीं बतायेगा

पत्नी ने दी ऐसी धिक्कार
मिट गया था सारा अहँकार

अब आया था उसको ध्यान
जीवन उसका केवल श्री राम

पत्नी के मोह में फँसा ऐसा
उसे स्मरण राम भी नहीं रहा

आज जब बोली थी रत्ना
जो राम से प्रेम करो इतना

तुम जग में अमर हो जाओगे
भव-सागर भी तर जाओगे

झूठे मोह में फँस कर तो तुम
अपना यह जीवन गँवाओगे

मुर्दे पे बैठ के आये हो
और साँप को रस्सी बनाए हो

चोरों की तरह घुस कर घर में
तुम क्या परिचय करवाए हो

तुम्हें जरा शर्म भी नहीं आई
ऐसी भी क्या थी तन्हाई

यही प्रेम राम से किया होता
तो आज न तू तन्हा होता

उसे प्रेम करो जो विधाता है
जो इस जीवन का दाता है

जिस काम से तुमने लिया जन्म
अपना वह पूरा करो करम

उलटे पाँवों तुलसी था मुड़ा
और तभी श्री राम से नाता जुड़ा

जब पत्नी ने धिक्कार दिया
प्रभु राम ने आ के सँभाल लिया

जा रहा था अब वह उस पथ पर
बैठा था राम-नाम रथ पर

अब छोड़ चला था वह उसको
जीवन उसने समझा जिसको

मन अशान्त औ सोच गहरी
तुलसी की दृष्टि वही ठहरी

जहाँ वह श्री राम को पाएगा
जीवन को सफल बनाएगा

अब तक वह क्यों था रहा तम में
यह सोच रहा मन ही मन में

यह सोच – सोच चलता जाता
श्री राम प्रेम बढ़ता जाता

तुम कहाँ हो अब हे रघुनंदन
आ कर काटो मेरे बन्धन

मैं दुर्जन , मूर्ख पातक
अपने ही लिये बन गया घातक

क्यों मैं भूला तुमको रघुवर
क्यों छोड़ दिया मैंने वो दर

है तू बसता जिसके अन्दर
क्यों छोड़ा मैंने वो मन मन्दिर

क्यों इस मार्ग से भटक गया
और मोह माया में अटक गया

क्यों तब नहीं सूझा था मुझको
जब छोड़ गया था मैं तुझको

मैं उस रघुवर को भूल गया
जिसने है हर पल साथ दिया

जिसके लिये छोड़ दिया तुझको
उसने ही ठुकराया मुझको

यह दुनिया सारी झूठ है
जहाँ हर पग-पग पर लूट है

नहीं कोई किसी का हो सकता
जीवन भर साथ निभा सकता

मैंने क्या ऐसा गलत किया
उसके लिये सबकुछ छोड़ दिया

हर स्वास पे नाम लिखा उसका
यह तुलसी हो गया था जिसका

मैंने बस उससे प्रेम किया
अर्पण अपना नित्-नेम किया

जिसे प्रेम किया सबसे ज्यादा
और किया था जिससे यह वादा

वह साथ न उसका छोड़ेगा
सारे ही बन्धन तोड़ेगा

मैंने झूठ नहीं कभी कोई कहा
हर पल उसका हूँ हो के रहा

मैंने वादा अपना निभाया था
और उसी को मन में बसाया था

बन प्रेम पुजारी उसका मैं
उससे ही मिलने आया था

क्यों प्रेम को उसने नहीं जाना
और मुझको ही मूर्ख माना

उसे जरा समझ में नहीं आया
तुलसी वहाँ पर है क्यों आया

इक पल में तोड़ दिया नाता
क्या ऐसे ही छोड़ दिया जाता?

बस इतना प्यार ही मुझसे था
जिसको मैं कभी नहीं समझा

रत्ना ऐसा नहीं कर सकती
मेरा साथ कभी नहीं तज सकती

हर पल मेरे साथ बिताती थी
अपना हर फर्ज़ निभाती थी

पर आज छोड़ गई मेरा साथ
बाहर कितनी काली है रात

सोचा नहीं कैसे मैं आया हूँ
आ कर उसको बतलाया हूँ

कितनी देखी मैंने मुश्किल
तब जा कर कही हुआ सफल

क्यों चली आई मुझसे बिना कहे
तुलसी तुम बिन अब कैसे रहे?

पर रत्ना ने कहाँ सुना
बिन समझे ही धिक्कार दिया

सोचते तुलसी यूँ गिर ही पड़े
बहने लग आँसू बड़े-बड़े

पीड़ा थी अब अन्दर- बाहर
न सूझ रही थी कोई डगर

सुनसान में जाकर बैठ गया
रो-रो कर वही पे लेट गया

बाहर वर्षा तूफां अन्दर
पत्नी का प्रेम लगा खण्डहर

वह टूट के उस पर गिर गया था
उसमें तुलसी भी दब गया था

उस खण्डहर से निकले कैसे
शुद्ध हो जाये उसका मन जैसे

बैठा तुलसी बस रो ही रहा
मुख को आँसुओं से धो ही रहा

रोते हुए भाव बहा रहा था
अब स्वयं को ही समझा रहा था

बह गई नफरत अश्रु बन कर
बन गया था कुन्दन वह जल कर

नहीं बुरा भाव कोई मन में रहा
खुश हो कर तुलसी बोला ! अहा

श्री राम ने यह अच्छा ही किया
मेरे दोषों का दण्ड दिया

क्यों दोष मैं रत्ना को दे रहा?
क्यों मैंने उसको बुरा कहा?

वह तो देवी सबसे पावन
जिसने शुद्ध किया है मेरा मन

प्रेम तो बस उसका सच्चा
मैं ही हूँ अक्ल में बस कच्चा

उसने ही तो समझाया है
श्री राम का मार्ग बताया है

धन्य है वह देवी रत्ना
जो आज न होती यह घटना

कैसे मैं उसको छोड़ देता
श्री राम से नाता जोड़ लेता

मेरे लिये तो सम्भव नहीं था
मैं तो भँवर में घिरा ही था

रत्ना ने ही तो निकाला है
डूबते तुलसी को सँभाला है

मुझे क्षमा कर देना हे रघुवर
दुर्भाव आये मेरे अन्दर

उस देवी को भी बुरा कहा
जिसने मुझे मार्ग दिखा दिया

अब नहीं तुलसी रुक पायेगा
श्री राम शरण में जायेगा

उसको पाना है जीवन में
नहीं कोई पछतावा अब मन में

जो हुआ , अच्छा ही हुआ
तुलसी तो अब श्री राम का हुआ

उसकी मंजिल श्री राम चरण
अब उन्हीं चरणों में होगा मरण

रच डाला रामचरित मानस
श्री राम की हो गई कथा अमर

लिखते कभी पत्रिका में विनय
सबके लिये राम हो मंगलमय

बरवै रामायण लिख दी
फिर विनय में लिख दी दोहावली

मन में शान्ति फिर भी नहीं
अर्पण की राम को कवितावली

खुश हो जानकी मंगल लिखते
सिया-राम भक्ति में रत रहते

पर नहीं भरा तुलसी का मन
लिख दी वैराग्य सन्दीपन

हर एक शब्द में भरा भाव
पर नहीं भरा ह्रदय का घाव

वह घाव तो बढ़ता ही जाता
तुलसी उसमें घुलता जाता

तुलसी लिखता जाता जितना
गहरा होता वह घाव उतना

भाव का उमड़ता वह तूफान
जिससे तुलसी भी था अनजान

राम नाम ऐसा सागर
पैठा उसमें जो कोई अगर

नहीं फिर वह बाहर आ सकता
उस अनुभव को न बता सकता

दिल पर थे उसके ऐसे जख्म
बस राम नाम उसका मरहम

बिन सोचे ही लिखता जाता
क्या चाहता है उससे विधाता

क्या लिख दी उसने कथा अमर
उस कथा से शोभित हर मन्दिर

यह तुलसी की है अमर वाणी
श्री राम कथा जानी-मानी

श्री राम का नाम जब आयेगा
तुलसी का नाम भी आयेगा

भिन्न नहीं हो सकते यह नाम
राम तुलसी और तुलसी राम

जितना लिखता लगता वह कम
सोच के आँखें होती नम

श्री राम के दर्शन की इच्छा
यही तो तुलसी का प्रेम सच्चा

करता हर पल श्री राम जाप
धुल जाते जिससे सारे पाप

मन में सिया- राम की ही भक्ति
इस नाम में है अद्भुत शक्ति

इससे भी मन जो नहीं भरता
श्री राम का बस वंदन करता
*************************

2.श्री राम स्तुति

जय राम राम श्री राम
जग में पावन इक तेरा नाम

इससे तो तर जाते प्रस्तर
तेरे नाम से हो जाते है अमर

हे जगत पिता हे रघुनंदन
काटो अब मेरे भी बंधन

रघुकुल के सूर्य राजा राम
लज्जित तुम्हें देख करोड़ों काम

कौशल नंदन हे सीता पति
तेरे नाम में है अद्भुत शक्ति

तू सुख समृद्धि का दाता
तुम जगत पिता सिया जग माता

तुझ संग शोभित है सिया लखन
अर्पण तुझ पर अब यह जीवन

इस जीवन का उद्धार करो
मुझे भव सागर से पार करो

साथ में पवन पुत्र हनुमान
अनुपम झांकी को मन में जान

हम करते है तेरा वंदन
आकर दर्शन दो रघुनंदन

हे सरल शान्त कौशल नंदन
हम बाँस है और तू है चंदन

हम पातक , तू पातक हर्ता
हे भाग्य विधाता सुख करता

इस जीवन का उधार करो
सब कष्ट हरो सब कष्ट हरो
……………….
………………
यूँ राम की करते हुए विनय
तुलसी तो हो ही गया राममय

नहीं सूझे कुछ श्री राम बिना
बिन राम के जीना भी क्या जीना

**********************************
सीमा सचदेव

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