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क्या आप hindu हैं ?

मेरी आवाज़
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चौंकिए मत ? मेरा यह प्रश्न किसी से भी नहीं है और न ही होना चाहिए | मैं तो बस इस लिए लिख रही हूँ क्योंकि मुझे ऐसे ही एक प्रश्न का सामना करना पडा और मैं सिवाय हाँ कहने के अलावा और कुछ न कह पाई , बस सोचती रह गयी | अभी तीन-चार माह पहले ही हमने अपने नए घर में गृह-प्रवेश किया | सोसाइटी में अभी चूंकि हम नए है और ज्यादा जान-पहचान नहीं है , वैसे भी बंगलोर जैसे महा-नगर में इतना समय किसके पास कि बैठकर महफ़िल जमाकर चाय की चुस्कियों के साथ गप-शप करते हुए अपने मन की गांठें खोली जाएं और किसी का दुःख-सुख सांझा किया जाए | इस व्यस्त जीवन की आपा-धापी में हम आस-पडोस तो क्या बहुत बार अपनों को भी भूल जाते हैं और रात को अगर सोने का समय मिल जाए तो निद्रावस्था में बहुत सी बातें दिमाग में आकर भरत-नाट्यम करने लगती हैं | हम भी व्यस्त और सामने वाले भी तो हैलो हाय के अलावा हम केवल चेहरे अपने दिमाग में बैठा लेते हैं और सामने आने पर चेहरे पर हल्की सी मुस्कान अपने आप ही एक दूसरे को समयाभाव का सन्देश दे देती है | चलो शुक्र है कि हमारे पास कुछ बांटने के लिए हल्की सी मुस्कान तो है | कभी-कभी सोचती हूँ कि हम कितने स्वार्थी हैं , मुफ्त में भी हम किसी को कुछ देने में संकोच क्यों करते हैं ? केवल देने में ही नहीं लेने में भी संकोच करते हैं | हमें याद है जब हम छोटे थे तो घर में किसी भी समस्या का समाधान कैसे हो जाता था पता भी नहीं चलता था और समस्या किसी एक की न होकर पूरे परिवार की सांझी होती थी , जब तक न सुलझती तब तक घर में मीटिंगों का दौर चलता रहता और फिर कोइ न कोइ अच्छा परिणाम निकल ही आता और लोग कैसे अपने बच्चों को समझा वश में कर लेते , यह कला कम से कम आज तक मुझे तो समझ में नहीं आई | सच कहूँ तो मैं तो अपने पांच साल के बेटे के सामने भी हार मान जाती हूँ और इसके लिए हम बड़ी सफाई से अपनी कमजोरियों से पल्ला झाड लेते हैं , कभी नए जमाने का , कभी टी.वी. का तो कभी आधुनिकवाद को जिम्मेदार ठहरा कर | अगर गौर से देखा सोचा जाए तो इस सबके लिए जिम्मेदार और कोइ भी नहीं बल्कि हम स्वयम ही हैं या फिर हमारे समय की कमी , जिसे हम मानने को तैयार ही नहीं होते |मनोचिकित्सक के पास जाकर हज़ारों खर्च कर तो हम उसकी बात समझ लेते हैं और वही बात अगर हम आस-पड़ोस वालो के साथ बांटेगें तो सर्वप्रथम अपनी नाक की ऊँचाई दिखाई देगी , कहीं मुफ्त की सलाह के चक्कर में नाक कट गई तो समाज में क्या मुंह दिखाएंगे | तो भैया हमारी नाक भी तो संभालनी है हमें | इसलिए हम किसी से सुख-दुःख सांझा कर व्यर्थ में समय क्यों गंवाएं |
हम थोड़ा बाल-मनोविज्ञान को समझने का प्रयास करते है तो कोशिश रहती है कि अपने बेटे की आवश्यकतायों को समझा जाए | इस उम्र में बच्चों को सबसे ज्यादा लगाव खेल से ही होता है तो हम घर के बाहर वाले पार्क में बच्चे को खिलाने ले जाते हैं | कोइ न कोइ किताब पढ़ते या कुछ लिखते हुए पार्क के कार्नर वाले बैंच पर बैठ कर हमारा भी समय अच्छा गुजरता है और हमारा लाडला भी खेल कर खुश हो जाता हैऔर भी बच्चे खेलते हैं | बच्चों से न जाने क्यों इतना लगाव है कि अपनी तरफ मुझे आकर्षित कर ही लेते हैं | बच्चे सभी बहुत ही प्यारे , मासूम और निष्कपट होते है लेकिन एक बच्चा जो हमेशा मेरा ध्यान खींचता है , मुझे देखकर मुस्करा भर देता और मैं अपना काम छोड़ उसकी नन्ही-नन्ही गतिविधियाँ देखने को मजबूर हो जाती हूँ | कभी कभी अगर जेब में चाकलेट हो तो बच्चों को देना मुझे अच्छा लगता है , वो भी थैंक यूं आंटी बोलकर ये गए वो गए और फिर से व्यस्त अपने खेल में |
बात होली की है , मुझे त्योहार सभी पसंद हैं क्योंकि इनसे आपसी भाईचारा और कोइ न कोइ अच्छाई का सन्देश मिलता है और हर त्योहार के पीछे छिपी मान्यता को जानने में मुझे बड़ी उत्सुकता रहती है और फिर मैं अपने ढंग से ही मनाना पसंद करती हूं , भले ही उसके लिए मेरा सभी विरोध ही क्यों न करें ,लेकिन वही करूंगी जो मुझे अच्छा लगेगा और जिसमें कुछ भलाई होगी | मुझे रंग रंगीली होली और उत्साह देखने में मजा आता है लेकिन रंगों के साथ खुद खेलना मेरे स्वभाव में नहीं है | उसके बहुत सारे कारण भी हैं और आजकल इसका सबसे बड़ा कारण है —-पानी | जिस तरह से होली के दिन पानी बेकार होता है , देखकर मुझे वास्तव में दुःख होता है | यह जानती हूँ की मेरे सोचने भर से पानी जैसी समस्या का समाधान तो कतई होने वाला नहीं है लेकिन फिर भी हम किसी को नहीं समझा सकते तो स्वयम तो समझ सकते है , इसलिए मैं घर में ही रहना पसंद करती हूँ |
होली खुशी-खुशी बीत गयी और अपने रंगों से हर किसी को किसी न किसी तरह सराबोर करके दे गयी एक वर्ष का लंबा इन्तजार | मस्ती और धूमधाम के बाद सब अपने कार्य में व्यस्त | मैं भी रोजाना की तरह होली के दूसरे दिन पार्क में बैठी थी की वही बच्चा फिर से खेलने आया | मेरे पास चाकलेट थी तो मुस्कुरा कर फिर से उसे अपने पास आने का इशारा किया | आज उसके आने का जो अंदाज था , वह पहले से बिलकुल अलग | न चहरे पर मुस्कान और न ही चुलबुलापन जो अक्सर मैं उसमें देखती थी | वो मुझे बिना पलक झपके घूरते जा रहा था | मुझे लगा शायद आज अवश्य ही उसे किसी से daant पडी होगी और बिना समय गँवाए मैनें पूछ ही तो लिया- क्या हुआ ? मम्मी नें डांटा या टीचर नें ? उसनें मेरे सवाल पर सवाल दागते हुए पूछा – आंटी क्या आप HINDU हैं ………………..? एक बच्चे के मुंह से ऐसा प्रश्न सुनकर पता नहीं मुझे कैसा लगा ? ऐसी अपेक्षा तो मैंने कभी किसी से भी नहीं की थी और आजतक कभी ऐसे प्रश्न का सामना भी तो नहीं किया , लेकिन मैं अवाक थी और बिना किसी हाव-भाव के मैंने हाँ में सर हिला दिया , लगा था मेरी जुबान मेरा साथ ही नहीं दे रही है | मेरे सर हिलाने से वो मेरा जवाब समझ चुका था और उसके चहरे पर हल्की सी मुस्कान दौड़ आई थी | बिना मेरी मनोस्थिति को समझे उसने अगला प्रश्न फिर से दाग दिया – तो कल आप होली खेलने बाहर क्यों नहीं आई ? ab मैं chaahtee थी की एक लंबा chaudaa bhaashan jhaad doon लेकिन itanaa nanhaa saa man क्या samjhegaa तो मैं bas ” यह bachchon की मस्ती का tyohaahaar है kahkar vahaan से uth आई , bas der tak sochatee ही रही की
* itane chote से बच्चे के dimaag में itanee badee baat आई kaise ?,जो उसनें anjaane में ही मुझे kah dee

* क्या होली khelnaa हिन्दू होने का pramaan हैं , kayaa हम jaati dharm से पहले insaan नहीं हैं ?

* uske प्रश्न पर agar मैं naah में सर hilaatee तो क्या होता ?

बहुत सी baaten abhee भी मेरे dimaag में ghoom रही हैं लेकिन mera vyaktigat taur पर maananaa yahee है की हम insaan हैं और insaaniyat का farz nibhaa saken yahee सबसे बड़ा dharm है |

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