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मृग-तृष्णा

मेरी आवाज़
मेरी आवाज़
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एक दिन
पडी थी
माँ की कोख मे
अँधेरे मे
सिमटी सोई
चाह कर भी कभी न रोई
एक आशा
थी मन मे
कि आगे उजाला है जीवन मे
एक दिन
मिटेगा तम काला
होगा जीवन मे उजाला
मिल गई
एक दिन मंजिल
धड़का उसका भी दुनिया मे दिल
फिर हुआ
दुनिया से सामना
पडा फिर से स्वयं को थामना
तरसी
स्वादिष्ट खाने को भी
मर्जी से
इधर-उधर जाने को भी
मिला
पीने को केवल दूध
मिटाई
उसी से अपनी भूख
सोचा ,
एक दिन
वो भी दाँत दिखाएगी
और
मर्जी से खाएगी
जहाँ चाहेगी
वहीं पर जाएगी
दाँत भी आए
और पैरो पर भी हुई खडी
पर
यह दुनिया
चाबुक लेकर बढी
लडकी हो
तो समझो अपनी सीमाएँ
नही
खुली है
तुम्हारे लिए सब राहे
फिर भी
बढती गई आगे
यह सोचकर
कि भविष्य मे
रहेगी स्वयं को खोज कर
आगे भी बढी
सीढी पे सीढी भी चढी
पर
लडकी पे ही
नही होता किसी को विश्वास
पत्नी बनकर
लेगी सुख की साँस
एक दिन
बन भी गई पत्नी
किसी के हाथ
सौप दी जिन्दगी अपनी
पर
पत्नी बनकर भी
सुख तो नही पाया
जिम्मेदारियो के
बोझ ने पहरा लगाया
फिर भी
मन मे यही आया
माँ बनकर
पायेगी सम्मान
और
पूरे होंगें
उसके भी अरमान
माँ बनी
और खुद को भूली
अपनी
हर इच्छा की
दे ही दी बलि
पाली
बस एक ही
चाहत मन मे
कि बच्चे
सुख देंगें जीवन मे
बढती गई
आगे ही आगे
वक़्त
और हालात
भी साथ ही भागे
सबने
चुन लिए
अपने-अपने रास्ते
वे भी
छोड गए साथ
स्वयं को छोडा जिनके वास्ते
और अब
आ गया वह पड़ाव
जब
फिर से हुआ
स्वयं से लगाव
पूरी जिन्दगी
उम्मीद के सहारे
आगे ही आगे रही चलती
स्वयं को
खोजने की चिन्गारी
अन्दर ही अन्दर रही जलती
भागती रही
फिर भी रही प्यासी
वक़्त ने
बना दिया
हालात की दासी
मीदो से
कभी न मिली राहत
और न ही
पूरी हुई कभी चाहत
यही चाहत
मन मे पाले
इक दिन दुनिया छूटी
केवल एक
मृग-तृष्णा ने
सारी ही जिन्दगी लूटी

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सीमा सचदेव

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