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मैं……………………
अपनी मां की ममतामई
गोदि से अलग-थलग
असहाय निरीह बालक
वक्त के थपेडों से पला बढा
मेरी मजबूरी , लाचारी
मुझे धकेलती रही
दिशाहीन बल खाती लहरों में
टकराता रहा मैं
ढूंढता रहा अपना ठिकाना
भटकता रहा इधर-उधर
कभी सहमा तो कभी दब गया
तूफ़ान के आगे?????????
लेकिन…………….
लेकिन फ़िर भी——–
मैनें हिम्मत न हारी
मेरे सम्मुख रही मेरी लाचारी
कभी सर उठाया तो कभी झुकाया
कभी गिडगिडाया तो कभी गुस्सा दिखाया
क्या-क्या न किया मैनें…….
अपने अस्तित्त्व की खातिर
बचते-बचाते गिरते सम्भलते
किसी भी तरह दुनिया के साथ
कदम से कदम मिलाने की चाहत
मुझे धकेलती रही और……
और मैं चलता रहा
गिरते लडखडाते आखिर मैं
खडा हुआ अपने पैरों पर
मेरी तुतली वाणी में कर्कश्ता आने लगी
मेरी जिह्वा बिना बात बतियाने लगी
मन में भय समाया रहा
भय , दुश्मन की शक्ति का
भय , स्वयं के मिट जाने का
मैं अंदर से डरा सहमा
ऊपर से गुस्सा दिखाता रहा
स्वयं को बचाता रहा
अपनी मजबूरियों , कमजोरियों को छुपाता रहा
न जाने कितने ही दर्द छिपा लिए
मैनें अपने भीतर
जो अब भी दफ़न हैं
सिसकते हैं मेरे भीतर
ह्रदय के किसी कोने में
मेरी ही कमजोरियों नें
मेरे बच्चों को मजबूर बना दिया
जल्द आगे बढने की चाहत नें उन्हें
अनजाना पथ दिखला दिया
मैं बेबस लाचार कमजोर
अपने ही बच्चों को समझाने में विवश
बस आंसु बहाता हूं
दर-दर की ठोकरें खाता हूं
………………………….
………………………….
मेरे ही बच्चे नहीं समझ पाए
मेरे ही नाम की परिभाषा
गैरों से क्या लगाऊं आशा……..?
जिसे अपने ही घर में
ठुकराया जाता है
उसे भला बाहर कोई
कहां अपनाता है
क्या करूं , कहां जाऊं
किसे जाकर समझाऊं
कि मैं पाक हूं
मेरे ही बच्चों नें मुझे
(ना)पाक बनाया
कुबुद्धि नें उन्हें ऐसा भरमाया
कि मेरी सुन्दर वादी में
आतंकवाद को पाला
वो आतंकवाद
जिसे पनाह दी
वही बना रहा मुझे
अपना निवाला
और……….
बेबस हूं मैं पाक…………..
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