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मँहगाई……….

मेरी आवाज़
मेरी आवाज़
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दिनो दिन बढती जाती है
किसी नॉन स्टॉप ट्रेन की भान्ति
छूती जा रही है ऊँचाई
किसी उडान भरते विमान की भान्ति
खोलती है अपना मुँह
सुरसा की भान्ति
नही है अब किसी हनुमान की हिम्मत
कि कलयुगी सुरसा के मुँह मे
घुसकर सुरक्षित वापिस आ सके
रह जाता है साधारण जन लटक कर
त्रिशन्कु की भान्ति
एक ऐसा चक्र्व्यूह जिसमे
कोई अभिमन्यु घुसता है
पर वापसी के सारे मार्ग बन्द
कर जाता है अपने आप ही
बुन लेता है जाल
अपने चारो ओर
मकडी की भान्ति और
जीवन पर्यन्त खोजता है
बाहर का रास्ता
लाख प्रयत्न भी नही निकाल पाते
उसे इस मकडजाल से बाहर

घेर लेती है एक अदृश्य परछाई
न जाने कब ,कैसे
और पता भी नही चलता
फँस जाता है
आगे कुँआ पीछे खाई
के दोराहे पर
ज्यो पेट भरने की चाहत मे
निगल जाता है साँप छिपकली को
सिर पर कर्ज़ का बोझ लिए
ताउम्र सहता है आम जन
मँहगाई के कौडे
और लिख जाता है वसीयत
मेँ मँहगाई……….
अपने वारिसो के नाम भी

— सीमा सचदेव

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