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राम अभी फिर से न आना
न आदर्शवाद दिखलाना
अब है हर जन-जन में रावण
न कोई मन राम के अर्पण
धोखेबाज़ के घर में उजाला
और सच्चाई का मुंह काला
न कोई सीता न ही लखन
सर्वोत्तम सत्य बस धन
कुर्सी का व्यापार चला है
भ्रष्टाचार में सबका भला है
देखो सब जुबां न खोलो
मुंह से राम-राम ही बोलो
पर रावण को मन से मानो
करो वही जिसमें हित जानो
आदर्शों के पहन नकाब
ढककर चेहरे अपने जनाब
दश नहीं शतकों सर वाले
सुन्दर पर अन्दर से काले
न चाहे अब कोई मुक्ति
पास हो जो कुर्सी की शक्ति
क्या करनी है राम की भक्ति
न चाहिए भावों की तृप्ति
अब न यहाँ कोई हनुमान
गली-गली में बसे भगवान
इससे ज्यादा अब क्या बोलें
और कितना छोटा मुंह खोलें
ख़त्म हो चुके हैं अब वन
कहाँ बिताओगे तुम जीवन
नहीं हैं चित्रकूट से पर्वत
हर चीज़ हुई प्रदूषित
अब हैं सब मतलब के साथी
क्या बेटा क्या पोता नाती
अब जो तुम धरती पर आना
सर्व-प्रथम खुद को समझाना
स्व हित सम कोई हित न दूजा
करनी है लक्ष्मी की पूजा
स्वयम जियो , सबको जीने दो
विष को अमृत समझ पीने दो
पर अपनी कुर्सी न छोड़ो
स्वार्थ हित हर नाता तोड़ो
अब न बाप न नातेदारी
लालच के अब सब व्यापारी
तुम भी अब खुद को समझा लो
रावण के संग हाथ मिला लो
तभी यहाँ रह पाओगे
वरना
गुमनामी में खो जाओगे
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