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झुग्गी कचडा ….. एक सपना

मेरी आवाज़
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दूर नगर इक नदी किनारे
बस्ती एक घनी थी
कचडे के इक ढेर के ऊपर
झुग्गी एक बनी थी
खेल रहे थे भोला पप्पू
दुखिया गुड्डो मिलकर
तभी देखकर दूर किसी को
भागे सभी सहम कर
कितनी दूर भाग पाते वे
आखिर तो बच्चे थे
झूठ कपट से दूर सभी
तन मन से भी कच्चे थे
भोला को डंडा दिखलाकर
चोरी एक मनवाई
जिसकी वह न कर सकता था
जीवन भर भरपाई
बंद सलाखों के पीछे
भोला सच में भोला था
मारे डर के उसनें अपना
मुँह भी न खोला था
हाथ फैलाकर भीख माँगता
पप्पू सड़क किनारे
एक टाँग पर खडा हुआ
अल्लाह का नाम पुकारे
पर न कोइ अल्लाह आया
न आया भगवान
फिर भी आस लिए था मन में
था कितना नादान
गुड्डो गुडिया बचपन में ही
दो बच्चों की माँ थी
खेल कूद की उम्र थी उसकी
हुई न अभी जवाँ थी
गुडिया से बनी सीधी बुढ़िया
कैसी किस्मत पाई
दुबली देह ने न जाने
कितनों की प्यास बुझाई
दुखिया यह सब सह न पाया
कूदा नदी में जाकर
हाय री लहर अभागी नें
फैंका उसे बाहर लाकर
मौत नें भी न गले लगाया
साँस अभी बाकी थी
पर उसकी आँखों में बस गयी
वर्दी वह खाकी थी
मन से हुआ अपाहिज
मुँह खोले को न होता था
सोच के खेल अभागा वह
हर पल ही बस रोता था
फिर न कभी भी मिल पाए
गुड्डो पप्पू और भोला
दुखिया लटकाए रहता था
भरा दुखों का झोला
भीड़ भरी दुनिया में उनका
कोई भी न अपना था
झुग्गी कचडा और खेल
बस फिर से इक सपना था

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