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आन बसो कान्हा ( A poem )

मेरी आवाज़
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कृष्ण कन्हैया धीरे-धीरे
और यमुना के तीरे-तीरे
मुरली की धुन आज सुना दो
प्यार का फिर संदेश सुना दो

देखो तेरी इस यमुना में
कुञ्ज गलिन में और मधुवन में
गली गली में वृन्दावन में
और ब्रज के हर इक आँगन में
kannu

कहाँ वो पहला प्यार रहा है?
बोलो! कान्हा अब तू कहाँ है?
क्यो तेरी पावन धरती पर
लालच ने डाला अपना घर?

कहा है माँ जसुदा की रस्सी?
और वो खट्टी-मीठी लस्सी
कहाँ वो छाछ, दधि और दूध?
अब तो जैसे मची है लूट

कहाँ हैं वो ग्वाले और गोपी?
अब तो सारे बन गए लोभी
कहाँ है वो मीठी सी लोरी?
कहाँ गई वो माखन चोरी?

कहाँ गया वो रास रचाना?
मुरली बजा गायों को बुलाना
यमुना तट पर रास रचाना
और छुप-छुप कर मिट्टी खाना

कहाँ गया प्यारा सा उलाहना?
गोपियो का जो माँ को सुनाना
कहाँ है वो भोली सी बाते?
कहाँ गई पूनम की राते?

कहाँ गया निर्मल यमुना जल?
जहाँ पे पक्षी करते कलकल
कहाँ गए सावन के झूले?
कान्हा! अब यह सब क्यो भूले?

कहाँ है कदम्ब वृक्ष की छाया?
जिस पर तुमने खेल खिलाया
कहाँ गए होली के वो रंग?
जो खेले तुमने राधा संग

कहाँ है नन्द बाबा का प्यार?
कहाँ है माँ जसुदा का दुलार?
कहाँ गई मुरली की वो धुन?
कहाँ गई पायल की रुनझुन?

अब वहाँ कपट ने डाला डेरा
लालच ने सबको ही घेरा
आओ कान्हा फिर से आओ
आ कर मुरली मधुर बजाओ

फिर से वो ब्रज वापिस लादो
फिर से धुन मुरली की सुना दो
आन बसो तुम फिर से कान्हा
और फिर वापिस कभी न जाना

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