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बापु के बन्दरों की व्यथा ( हास्य-व्यंग्य कविता )

मेरी आवाज़
मेरी आवाज़
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बंदरों नें इक सभा बुलाई
हर जाती बंदरों की आई

करते दमा-दम मस्त कलंदर
सभा में आए सारे बन्दर
केले और चने मंगवाए
बन्दर कोइ भूखा न जाए
हर सुविधा का रखा ख्याल
बंदरों नें की खूब धमाल
अब आया मुख्य एजंडा
बन्दर हाथ में पकड़ के डंडा
बोले हमको चाहिए न्याय
इसी लिए हम सभा में आए
सभी बंदरों का खींचा ध्यान
सुनाने लगे सभी दे कान
हम बापू के बन्दर तीन
देखो हम हैं कितने दीन
किसको अपनी व्यथा सुनाएं
जाएं तो हम कहाँ पे जाएं
अब न और सहा जाता है
बिन बोले न रहा जाता है
हम तीनों की सुनो कहानी
कर न सकते हम मनमानी
……………………………..
……………………………..
सभा से एक आई आवाज़
तुम तीनों करते हो राज़
तुम बापू के बन्दर प्यारे
सत्यवादी तुम्हें सभी पुकारें
सीख तुम्हीं से लेते बच्चे
सबकी नज़रों में तुम सच्चे
तुम सबको देते हो ज्ञान
तुम तीनों तो सदा महान
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……………………………
बंद करो अपनी बकवास
हटाते हुए आँख से हाथ
भर आया बन्दर का मन
गिर गए उसके अश्रु कण

बोला अब मैं थक गया हूँ
सचमुच ही मैं पाक गया हूँ
हर पल हाथ पे रखता हाथ
समझे न कोइ मेरे जज़बात
देख न सकूं मैं दुनियादारी
आँखों होते भी लाचारी
सुनता हूँ जब नाच औ गाना
मेरा मन मचले दीवाना
जब भी चाहूँ हाथ हटाना
सामने हो जाए खडा ज़माना
आँखें होते भी हूँ अंधा
चौपट हो गया मेरा धंधा
कब तक रखूं बंद मैं नैन
नहीं है मेरे मन में चैन
सुनता रहता हूँ बुराई
पर नहीं देता मुझे दिखाई
जो न मुझपर बंधन होता
सुनकर बातें यूं न रोता
हाथ भी मेरे थक गए अब
जाने दुनिया देखूंगा कब
कब मिटेगा यह अन्धकार
रहने लगा हूँ मैं बीमार
बाहें मेरी सूज गयी हैं
मुझमे ताकत नहीं रही है |
कहते -कहते बन्दर रोया
अश्रु जल से मुखड़ा धोया
………………………………
………………………………
अब दूसरा बन्दर बतियाया
अपने दिल का हाल सुनाया
क्षमा चाहूँ मैं बोल रहा हूँ
अपने मुख को खोल रहा हूँ

पर अब चुप न रहा जाता है
और न मुझसे सहा जाता है
देखता सुनता हूँ हर बात
पर न कह सकता जजबात
मेरे भी अपने हैं विचार
कर सकता हूँ कुछ तो सुधार
देखूं सब पर मुंह न खोलूं
बोलूं तो मैं कैसे बोलूं
हर भावना को दबा जाता हूँ
अन्दर ही घुटता जाता हूँ
जब भी करने लागुन कोइ बात
पद जाए लोगों से लात
मार के मुझको बच्चे जाएं
बड़ा वीर फिर खुद को बताएं
कहते मुझे बापू का बन्दर
रखो बात स्व-मन के अन्दर
करो उअनके वचनों का पालन
मुंह पर हाथ रखो हरदम
चुप रह मेरे दब गए भाव
कितने मेरे दिल पर घाव
नहीं मैं वो दिखला सकता हूँ
अपना दुःख न बता सकता हूँ
कब तक मैं यूं चुप रहा जाऊं
अपनी व्यथा मैं किसे सुनाऊँ
बिलख-बिलख कर बन्दर रोया
सचमुच उसने आपा खोया
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तीसरा बन्दर भी परेशान
खोले उसनें अपने कान
आँखें तो उसकी भी रोई
कहता मुझसा दुखी न कोई
मुझे न सुनाने का अधिकार
कैसे सुनूँ मैं नेक विचार
|
पर अनुभव मैं सुन न पाऊँ
कैसे खुद में प्रगति लाऊँ
सूना नहीं तो सीखना कैसा
हूँ मैं किसी अपाहिज जैसा
हर दम उंगली कान में डाले
न समझूं दुनिया के चाले
मैं भी हूँ फिल्मों का दीवाना
पर न सुन सकता कोई गाना
मर गए हैं मेरे सब शोंक
मुझ पर ही क्यों लगी है रोक
हूँ बन्दर पर नहीं आज़ाद
न सुन सकूं मैं कोई आवाज़
किसी का दुःख न सुन सकता हूँ
सुने बिना न रह सकता हूँ
दुर्लभ हो गया है अब जीना
मेरा हक़ क्यों मुझसे छीना
पाक चुके हैं मेरे कान
नहीं रहे मन में अरमान
अच्छा ले लो मेरी जान
पर न बंद करो मेरे कान
जाने कब मैं सुन पाऊंगा
ढंग का जीवन जी पाऊँगा
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सुन दुखभरी तीनों की कहानी
बंदरों की यूं बोली नानी
तुम न अब अन्याय सहोगे
जैसे चाहो, वैसे रहोगे
तोड़ दो तुम ये सारे बंधन
और स्वच्छंद जियो ये जीवन
दुनिया की न करो परवाह
पकड़ो अपनी-अपनी राह
……………………………
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पर तुम तीनों रखना ध्यान
करो सदा सबका सम्मान
पर न खोना स्व आज़ादी
वरना खुद की ही बर्बादी

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