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खट्टी-मीठी यादें -संस्मरण – contest

मेरी आवाज़
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खट्टी-मीठी यादें…… यह सोचते ही दिमाग़ में कोंधने लगते हैं-वो विचार, वो खिलवाड़,वो साथी,वो गलियाँ,वो घर,वो लोग और न जाने क्या-क्या?मैं भी जब याद करती हूँ तो गुम हो जाती हूँ-अपनी उन बचपन की खट्टी-मीठी यादों में-जो कभी हमारा दामन नहीँ छोड़ती |.यह तो अटल सत्य है कि बीता हुआ समय वापिस नहीँ आता,आती हैं तो बस यादें और हम उन भोली-भाली,सीधी-सादी,साफ-स्पष्ट बातों को याद कर कभी अति गंभीर हो उठते हैं तो कभी अति भावुक,कभी उदास हो जाते हैं तो कभी अनायास ही हल्की सी मुस्कान दौड़ जाती है हमारे होठों पर | कभी न भूलने वाले अनुभव होते हैं यह……… जन्म से हम सिर्फ़ बच्चे होते हैंबच्चों को बड़ा बनाते हैं-लोग,समाज,आस-पास का माहौल और घर के हालात | बच्चों के मन में कोई मैल नहीँ होता शायद इसी लिए बच्चों को भगवान का दूसरा रूप कहा जाता है शैतान,चंचल,मासूम,चुलबुले और किसी भी वैर-विरोध की भावना से परे…………बहुत प्यारा होता है बचपन | मैं भी बाँट रही हूँ अपनी उन खट्टी-मीठी यादों को,जो ,कभी मेरा पीछा नहीँ छोड़ती | एक लघु प्रयास किया है उन यादों को कुछ पन्नों में समेटने का | हम समय को नहीँ बाँध सकते और एक-एक पल को अपनी लेखनी में उतारना तो संभव ही नहीँ , फिर भी मन हल्का करने का एक प्रयास तो कर ही सकते हैं |

१. पापा का चाँटा

यह है मेरे बचपन कि सबसे प्यारी और सबसे मीठी याद………जब शायद पहली बार मेरे पापा ने मुझे चाँटा लगाया था |बात तब की है जब मैं बहुत छोटी थी-कोई तीन/साढे तीन साल की | मैं बहुत जिद्दी थी-बस जो ठान लिया वो चाहिए ही |मुझसे बड़े थे मेरे भैया(प्यार से हम बिट्टू कहते थे) और मेरी दीदी(उसे प्यार से चिड़ी कहते थे) |दोनों स्कूल जाते तो हो जाता मेरा रोना शुरू,मैं भी उनके साथ जाने की जिद्द करती |मम्मी हर रोज उनके स्कूल जाने के समय मुझे बहाने से छिपा देती लेकिन कब तक, वही हर रोज का रोना धोना | तब हम गाँव में रहते थे और वहाँ पर एक ही सरकारी स्कूल था ,जहाँ पर छ: साल से पहले दाखिला नहीँ हो सकता था |मतलब मुझे अभी अढाई/तीन साल और इंतज़ार करना था| घर में किसी को भी जल्दी न थी मुझे स्कूल भेजने की |तब मुझे स्कूल जाने का इतना चाव क्यों था ?,नहीँ जानती |लेकिन मेरी हर रोज की जिद्द से घर में सभी तंग आ चुके थे |मुझे आज भी धुँधला सा याद है कि-एक दिन तो मैं इतना ज़्यादा रोई थी कि पापा को गुस्सा आ गया और उन्होंने एक चाँटा तक मेरी गाल पे रसीद कर दिया |बस मैने और ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया| हाँ, इसके लिए पापा को मेरे बाऊजी (दादा जी) से खूब झिड़की मिली और मुझे अपनी गोदी में लेकर प्यार से मनाने लगे और मैने रोते-रोते कहा था- “मैं पापा नाल कदे गल्ल नहीँ करनी,पापा तां गंदिया जिहियाँ चाँटा मारदै” (मैं पापा के साथ कभी बात नहीँ कारूँगी, पापा तो गंदी सी चाटें मारते हैं) बस यह सुन कर तो सभी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे और बाऊजी ने हंसते हुए कहा -“तां चांगियाँ चाँटा कौन मारदै?”( तो अच्छी चाटें कौन मारता है?) भला कभी चाटें भी अच्छी होती हैं | तब तो मैं सब कि हँसी का कारण नहीँ समझी थी लेकिन अब सोचती हूँ- बचपन कितना मासूम होता है | यह बात हमारे घर में कभी कोई नही भूल पाया और अब भी जब हम इककठे होते हैं तो इस बात का ज़िक्र अवश्य होता है |शायद इसी लिए मैं इतनी छोटी सी उम्र की लेकिन बहुत ही प्यारी और मासूम सी याद को कभी नहीँ भूल पाई |

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